Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 2
________________ SIS प्रस्तावना प्रजापति आदि तीर्थंकर धर्म तीर्थ साम्राज्य नायक भगवान ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान भगवान पर्यन्त दिव्य ध्वनि रूप द्वादशांग जिनवाणी अविरल रूप से चलती रही, जिसका मूल आधार स्यादवाद और अनेकान्तवाद है। जिसे भावों में उमस्कार किया है। और कहा है कि श्रीमत् परम- गम्भीर - स्याद्रादामोघ लाञ्छनम । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम् ॥ - 19 MA अर्थात् मैं उस जिनशासन की जयकार करता हूँ जो परम गम्भीर है, स्यादवाद जिसका लक्षण है और जो त्रिलोकीनाथ (वीतराग परमात्मा) का कहा हुआ है। क्योंकि यही स्याद्वाद अनेकान्त जिनशासन का मूल आधार है और इसके बिना मोक्ष मार्ग भी नहीं बनता सही वस्तु स्वरूप का निरूपण भी नहीं होता इसलिए इसका आलम्बन आचार्य भगवन्तों ने लिया है। 4 साधना के लिए जिस प्रकार पुण्य-जीवन और पवित्र प्रवृत्तियों की आवश्यकता है, उसी प्रकार हृदय से सत्य का भी निकटतम परिचय होना आवश्यक है मनुष्य की मर्यादित शक्तियाँ है । पदार्थों के परिज्ञान के साधन भी सदा सर्वथा सर्वत्र सबको एक ही रूप में पदार्थों का परिचय नहीं कराते। एक वृक्ष समीपवर्ती व्यक्ति को पुष्प पत्रादि प्रपूरित प्रतीत होता है तो दूरवर्ती को उसका एक विलक्षण आकार दिखता है । पर्वत के समीप आने पर वह हमें दुर्गम और भीषण मालूम पड़ता है किन्तु दूरस्थ व्यक्ति को वह रम्य प्रतीत होता है - "दूरस्था भूपरा रम्याः " । इसी प्रकार विश्व के पदार्थों के विषय में हम लोग अपने-अपने अनुभव और अध्ययन विश्लेषण करें तो एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभव मिलेगें, जिनको अकाट्य होने के कारण सदोष या भ्रमपूर्ण नहीं कहा जा सकता। एक संखिया नामक पदार्थ के विषय में विचार कीजिए। साधारण जनता उसे विष रूप से जानती है किन्तु वैद्य उसका भयंकर रोग निवारण में सदा प्रयोग प्रायश्चित विधान - १

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