Book Title: Pravachanasara
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 422
________________ २५७ प्रवचनसारः वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ ८॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥ ९॥ जुम्म। व्रतसमितीन्द्रियरोधो लोचावश्यकमचेलमस्नानम् । क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तं च ॥ ८ ॥ एते खलु मूलगुणाः श्रमणानां जिनवरैः प्रज्ञप्ताः । तेषु प्रमत्तः श्रमणः छेदोपस्थापको भवति ॥ ९॥ युग्मम् । सर्वसावद्ययोगपत्याख्यानलक्षणैकमहावतव्यक्तवशेन हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरत्यात्मकं पञ्चतयं व्रतं तत्परिकरश्च पश्चतयी समितिः पश्चतय इन्द्रियरोधो लोचः षट्तयमावश्यभवति तदा सविकल्पं छेदोपस्थापनचारित्रमारोहतीति प्रतिपादयति-वदसमिदिदियरोधो व्रतानि च समितयश्चेन्द्रियरोधश्च व्रतसमितिन्द्रियरोधः । लाचावस्सयं लोचं चावश्यकानि लोचावश्यकं, "समाहारस्यैकवचनम्” । अचेलमण्हाणं खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च अचेलकास्नानक्षितिशयनादन्तधावनस्थितिभोजनकभक्तानि ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता एते खलु स्फुटं अष्टाविंशतिमूलगुणाः श्रमणानां जिनवरैः प्रज्ञप्ताः तेसु पमत्तो समणो छेदोवढावगो होदि तेषु मूलगुणेषु यदा प्रमत्तः च्युतो भवति । सः कः । श्रमणस्तपोधनस्तदाकाले छेदोपस्थापको भवति । छेदे व्रतखण्डने सति पुनरप्युपस्थापकश्छेदोपस्थापक इति । तथाहिनिश्चयेन मूलमात्मा तस्य केवलज्ञानाद्यनन्तगुणा मूलगुणास्ते च निर्विकल्पसमाधिरूपेण परमसामायिकाभिधानेन निश्चयैकव्रतेन मोक्षबीजभूतेन मोक्षे जाते सति सर्वे प्रकटा भवन्ति । तेन कारणेन पाँच समिति, और पाँच इन्द्रियोंका निरोध (रोकना) लोचावश्यकं] केशोंका लोंच, छह आवश्यक क्रियायें, [अचलक्यं दिगम्बर अवस्था, [ अस्नानं] अंग प्रक्षालनादि क्रियासे रहित होना, [क्षितिशयनं ] भूमिमें सोना, [अदन्तधावनं ] दाँतोन नहीं करना, [स्थितिभोजनं] खड़े होकर भोजन करना, [च] और [एकभुक्तः ] एक बार भोजन करना, [एते] ये २८ [मूलगुणाः] मूलगुण [श्रमणानां] मुनीश्वरोंके [जिनवरैः] सर्वज्ञवीतरागदेवने [खलु] निश्चयकर [प्रज्ञप्ताः ] कहे हैं, इन मूलगुणोंसे ही यतिपदवी स्थिर रहती है। [तेषु] उन मूलगुणोंमें जो किसी समय [प्रमत्तः] प्रमादी हुआ [श्रमणः] मुनि हो, तो [छेदोपस्थापकः] संयमके छेद (भंग) का फिर स्थापन करनेवाला होता है । भावार्थ-ये अट्ठाईस मूलगुण निर्विकल्प सामायिकके भेद हैं, इस कारण ये मुनिके मूलगुण हैं, इन्हींसे मुनिपदकी सिद्धि होती है । जो कभी इन गुणोंमें प्रमादी होजावे, तो निर्विकल्प सामायिकका भंग होजाता है, इसलिये इनमें सावधान होना योग्य है । जो यह मालूम हो, कि मेरे इस भेदमें संयमका भंग हुआ है, तो उसी भेदमें फिर आत्माको स्थापन करे, उस प्रव.३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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