Book Title: Pravachanasara
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 504
________________ ७५ ] प्रवधनसारः ३३९ ज्ञानज्ञेयाद्वैतनयेन महदिन्धनमारपरिणतधूमकेतुवदेकम् २४ । ज्ञानज्ञेयद्वैतनयेन परप्रतिबिम्बसंपृक्तदर्पणवदनेकम् २५ । नियतिनयेन नियमितौष्ण्यवह्निवनियतस्वभावभासि २६ । अनियतिनयेन नियत्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतखभावभासि २७ । स्वभावनयेनानिशिततीक्ष्णकण्टकवत्संस्कारनर्थक्यकारि २८ । अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्संस्कारसार्थक्यकारि २९ । कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्यमानसहकारफलवत्समयायत्तसिद्धिः ३० । अकालनयेन कृत्रिमोष्मपाच्यमानसहकारफलवत्समयानायत्तसिद्धिः ३१ । पुरुषकारनयेन पुरुषकारोपलब्धमधुकुक्कुटीकपुरुषकारवादिवद्यन्नसाध्यसिद्धिः ३२ । दैवनयेन पुरुषकारवादिदत्तमधुकुक्कुटीगर्भलब्धमाणिक्यदैववादिवदयत्नसाध्यसिद्धिः ३३ । ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्तृ ३४ । अनीश्वरनयेन स्वच्छन्ददारितकुरङ्गकण्ठीरववत्स्वातन्त्र्यभोक्त ३५ । गुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकवद्गुणग्राहि ३६ । अगुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकाध्यक्षवत् केवलमेव साक्षि ३७ । कर्तृनयेन रञ्जकवद्रागादिपरिणामकर्त ३८ । अकर्तृनयेन स्वकर्मप्रवृत्तरञ्जकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि ३९ । भोक्तृनयेन हिताहितान्नयोऽसौ परमात्मद्रव्यं जानाति स निर्विकल्पसमाधिप्रस्तावे निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानेनापि जानातीति ॥ पुनरप्याह शिष्यः–ज्ञातमेवात्मद्रव्यं हे भगवन्निदानीं तस्य प्राप्युपायः कथ्यताम् । भगवानाह—सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंहोता है । अस्वभावनयकर सँभाला हुआ होता है, जैसे लोहेका बाण बनानेसे तीखा होता है । कालनयकर कालके आधीन सिद्धि होती है, जैसे ग्रीष्मकाल (गर्मी ) के अनुसार डालका आम सहजमें पक जाता है । अकालनयकर कालके आधीन सिद्धि नहीं है, जैसे घासकी गर्मीसे पालमें आम पक जाता है । पुरुषाकारनयसे यत्नसे सिद्धि होती है, जैसे शहदके उत्पन्न करनेके लिये काठके छेदमें एक मधुमाखी रखते हैं, उस मक्षिकाके शब्दसे दूसरी शहदकी मक्खियाँ आकर अपने आप मधुछत्ता बनाती हैं, इस तरह यत्नसे भी शहदकी सिद्धि होती है, उसी प्रकार यत्नसे भी द्रव्यकी सिद्धि होती है । देवनयकर विना यत्न भी साध्यकी सिद्धि होती है, जैसे यत्न किया था शहदके लिये परंतु दैवसंयोगसे उस मधुछत्तेमें माणिकरत्नकी प्राप्ति हो गई, इस तरह यत्न विना भी सिद्धि होती है । ईश्वरनयकर पराधीन हुआ भोगता है, जैसे पंथी बालक धायके आधीन हुआ खान पान क्रिया करता है । अनीश्वरनयकर स्वाधीन भोक्ता है, जैसे स्वेच्छाचारी सिंह मृगोंको विदारणकर खान-पान क्रिया करता है । गुणनयकर गुणोंका ग्रहण करनेवाला है, जैसे उपाध्यायकर सिखाया हुआ कुमार गुणग्राही होता है । अगुणनयकर केवल साक्षीभूत है, गुणग्राही नहीं है, जैसे अध्यापकसे सिखलाये हुए कुमारका रक्षक पुरुष गुणग्राही नहीं होता । कर्तानयकर रागादि परिणामोंका कर्ता है, जैसे रँगरेज रंगका करनेवाला होता है । अकर्तानयकर रागादि परिणामोंका करनेवाला नहीं है, साक्षीभूत है, जैसे रँगरेज जब अनेक रंग करता है, तब कोई तमाशा देखनेवाला तमाशा ही देखता है, वह कर्ता नहीं होता । भोक्तानयकर सुख दुःखका भोक्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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