Book Title: Pravachanasara
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 434
________________ १९] २६९ दैकान्तिकाशुद्धोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धखेन छेदत्वमैकान्तिकमेव । अत एव भगवन्तोऽर्हन्तः परमाः श्रमणाः स्वयमेव [ प्रागेव ] सर्वमेवोपधिं प्रतिषिद्धवन्तः । अत एव चापरैरप्यन्तरङ्गच्छेदवत्तदनान्तरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपधिः प्रतिषेध्यः ।। १९ ।। वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्तमेतावतैव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि । व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि ॥ प्रवचनसारः सर्वज्ञाः पूर्वं दीक्षाले शुद्धबुकस्वभावं निजात्मानमेव परिग्रहं कृत्वा शेषं समस्तं बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं छर्दितवन्तः । एवं ज्ञात्वा शेषतपोधनैरपि निजपरमात्मपरिग्रहं स्वीकारं कृत्वा शेषः सर्वोऽपि परिग्रहो मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्व त्यजनीय इति । अत्रेदमुक्तं भवति - शुद्ध चैतन्यरूपनिश्चयप्राणे रागादिपरिणामरूपनिश्चयहिंसया पातिते सति नियमेन बन्धो भवति । परजीवघाते पुनर्भवति वा न भवतीति नियमो नास्ति, परद्रव्ये ममत्वरूपमूर्च्छापरिग्रहेण तु नियमेन भवत्येवेति ॥ १९ ॥ एवं भावहिंसाव्याख्यानमुख्यत्वेन पञ्चमस्थले गाथाषट्कं गतम् । इति पूर्वोक्तक्रमेण एवं पगमिय सिद्धे' इत्यायेकविंशतिगाथाभिः स्थल पञ्चकेनोत्सर्ग चारित्रव्याख्याननामा प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः । अतः परं चारित्रस्य देशकालापेक्षयापहतसंयमरूपेणापवादव्याख्यानार्थं पाठक्रमेग त्रिंशद्गाथाभिर्द्वितीयोऽन्तराधिकारः प्रारभ्यते ॥ तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति, तस्मिन्प्रथमस्थले निर्ग्रन्थमोक्षमार्गस्थापनामुख्यत्वेन 'ण हि णिरवेक्खो चागो' इत्यादि गाथापञ्चकम् । अत्र टीकायां गाथात्रयं नास्ति । तदनन्तरं सर्वसावद्यप्रत्याख्यानलक्षणसामायिकसंयमासमर्थानां यतीनां संयमशौचज्ञानोपकरणनिमित्तमपवादव्याख्यानमुख्यत्वेन 'छेदो जेण ण रङ्गभाव के विना शरीरकी क्रियासे यत्न करते हुए परजीवका घात हो भी जाय, परन्तु परिग्रहका ग्रहण अन्तरङ्गभाव विना शरीरकी चेष्टासे कदाचित् नहीं होता। इसलिये ऐसा जानकर ही भगवान् वीतरागदेव परिग्रहका सर्वथा त्याग करते हैं, और दूसरे मुनियों को भी यही चाहिये, कि वे भी समस्त परिग्रहका त्याग करें । शुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्गसंयमका घात करो, या परिग्रहका ग्रहण करो, ये दोनों समान हैं । संयमके घातक दोनों हैं । इसलिये मुनिको चाहिये, कि जिस प्रकार अन्तरङ्गसंयमके घातका निषेध करे, उसी प्रकार परिग्रहको सबसे पहले छोड़ दे। बहुत कहाँतक कहें, जो समझने वाला है, वह थोड़े ही में समझ जाता है, और जो समझनेवाला न होवे, तो उसको जितना वचनका विस्तार दिखाया जाय, वह सब ही मोहका समूह अपार वाग्जल होता है, अर्थात् किसी प्रकार भी वह समझता नहीं ॥ १९ ॥ आगे अन्तरङ्गभावसे जो बाह्यपरिग्रहका त्याग है, वह अन्तरङ्ग शुद्धोपयोगरूप संयमके घातका निषेधक नहीं है, ऐसा उपदेश करते हैं- यदि [ निरपेक्षः ] परिग्रहकी अपेक्षासे सर्वथा रहित [ त्यागः ] परिग्रहका त्याग [न] न होय तो [हि ] निश्चयसे [ भिक्षोः ] मुनिके [आशयविशुद्धिः ] चित्तकी निर्मलता [न] नहीं [ भवति ] होती है, [च] और [चित्ते ] ज्ञानदर्शनोपयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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