Book Title: Pravachanasara
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 432
________________ १८] प्रवचनसारः अयताचारः श्रमणः षट्स्वपि कायेषु वधकर इति मतः । चरति तं यदि नित्यं कमलमिव जले निरुपलेपः ।। १८ ।। यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्ध दशुद्धोपयोगसद्भावः षट्कायप्राणव्यपरोप्रत्ययबन्धप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगासद्भावः परप्रत्ययबन्ध लेशस्याप्यभावाज्जलदुर्ललितं कमलमिव निरुपलेपखप्रसिद्धेरहिंसक जन्तुः न केवलमाबाध्येत मरिज्ज म्रियतां वा । किं कृत्वा । तं जोगमासेज्ज तं पूर्वोक्तं पादयोगं पादसंघटनमाश्रित्य प्राप्येति । ण हि तस्स तणिमित्तो बंधो मुहुमो य देसिदो समये न हि तस्य तन्निमित् बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये तस्य तपोधनस्य तन्निमित्तं सूक्ष्मजन्तुघातनिमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि स्तोकोऽपि नैव दृष्टः समये परमागमे । दृष्टान्तमाह-मुच्छा परिग्गहो चिय मूर्च्छापरिग्रहश्चैव अज्झष्पपमाणदो दिट्ठो अध्यात्मं दृष्टमिति । अयमत्रार्थ : - 'मूर्च्छा परिग्रहः' इति सूत्रे यथाध्यात्मानुसारेण मूर्च्छारूपरागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न च बहिरङ्गपरिग्रहानुसारेण तथात्र सूक्ष्मजन्तुघातेऽपि यावतांशेन स्वस्वभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा तावतांशेन बन्धो भवति, न च पादसंघटमात्रेण तस्य तपोधनस्य रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा नास्ति । ततः करणाद्बन्धोऽपि नास्तीति ॥ १-२ ॥ अथ निश्चयहिंसारूपोऽन्तरङ्गच्छेदः सर्वथा प्रतिषेध्य इत्युपदिशति - अयदाचारो निर्मलात्मानुभूतिभावलक्षणप्रयत्नरहितत्वेन अयताचारः प्रयत्नरहितः । स कः । समणो श्रमणस्तपोधनः छस्सु वि काये करोति मदो पट्स्वपि कायेषु वधकरो हिंसाकर इति मतः संमतः कथितः । चरदि आचरति वर्तते । कथं यथा भवति । जदं यतं यत्नपरं जदि यदि चेत् णिच्चं नित्यं सर्वकालं तदा कमलं व जले णिरुवलेत्रो कमलमिव जले निरुपलेप इति । एतावता किमुक्तं भवति — शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणछहों [कायेषु ] पृथिवी आदि कायोंमें [ बन्धकः ] बन्धका करनेवाला है, [ इति ] ऐसा [मतः ] सर्वज्ञदेवने कहा है । [यदि ] यदि [ नित्यं ] हमेशः [यतं ] यति क्रियामें यत्नका [ चरति ] आचरण करता है, [तदा] तो वह मुनि [जले ] जलमें [ कमलम् ] कमलकी [ इव] तरह [ निरुपलेपः] कर्मबन्धरूप लेपसे रहित है । भावार्थ - जिस समय उपयोग रागादिभावसे दूषित होता है, उस समय अवश्यमेव यति क्रियामें शिथिल होकर गुणों में यत्न रहित होता है । जहाँ यत्न रहित क्रिया होती है, वहाँ अवश्यमेव अशुद्धोपयोगका अस्तित्व है । यत्न रहित क्रियासे षट्कायकी विराधना होती है । इससे अशुद्धोपयोगी मुनिके हिंसकभावसे बन्ध होता है । जब मुनिका उपयोग रागादि भावसे रंजित न हो, तब अवश्य ही यति क्रियामें सावधान होता हुआ यत्नसे रहता है, उस समय शुद्धोपयोगका अस्तित्व होता है, और यत्नपूर्वक क्रियासे जीवकी विराधनाका इसके अंश भी नहीं है । अतएव अहिंसकभावसे कर्मलेपसे रहित है, और यदि यत्न करते हुए भी कदाचित् परजीवका घात होजाय, तो भी शुद्धोपयोगरूप अहिंसकभावके अस्तित्वसे कर्मलेप नहीं लगता । जिस प्रकार कमल यद्यपि जलमें डूबा रहता है, तथापि अपने अस्पृश्य स्वभावसे निर्लेप ही है, उसी तरह यह मुनि भी होता है। इसलिये 1 1 Jain Education International २६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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