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[प्रतिक्रमण-आवश्यक संयमना हेतुथी योगप्रवर्तना, स्वरूपलक्षे जिन आज्ञा आधीन जो; ते पण क्षण क्षण घटती जाती स्थितिमां, अंते थाये निजस्वरूपमां लीन जो. अपूर्व० ५. पंच विषयमा रागद्वेष विरहितता, पंच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो; द्रव्य, क्षेत्र ने काळ, भाव प्रतिबंधवण, विच उदयाधीन पण वीतलोभ जो. · अपूर्व० ६. क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोधस्वभावता, मान प्रत्ये तो दीनपणानुं मान जो; माया प्रत्ये माया साक्षी भावनी, लोभ प्रत्ये नहीं लोभ समान जो. अपूर्व० ७. बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहीं, वंदे चक्री तथापि न मळे मान जो; देह जाय पण माया थाय न रोममां, लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो. अपूर्व० ८. नग्नभाव, मुंडभाव सह अस्नानता, अदंतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो; केश, रोम, नख के अंगे शृंगार नहीं, द्रव्यभाव संयममय निग्रंथ सिद्ध जो. अपूर्व० ६. शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता, मान अमाने वर्ते ते ज स्वभाव जो; जीवित के मरणे नहीं न्यूनाधिकता, भव मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो. अपूर्व० १०.