Book Title: Pratikraman Aalochana Samayik Path
Author(s): Jain Mumukshu Mahila Mandal
Publisher: Jain Mumukshu Mahila Mandal

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Page 142
________________ १३६] [प्रतिक्रमण-आवश्यक माटे शरीर वगेरे पर पदार्थो तरफथी लक्ष खेंची लई, शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप पोताना आत्मा तरफ वलण करवाना अभ्यासरूप आ भावना छ। ४. आपना प्रसादथी-आ शब्दो एम सूचवे छे के जीव सम्यग्दर्शन पामे छे तेमां वीतरागी उपदेश निमित्त होय छे; अज्ञानीनो उपदेश तेमां निमित्त कदी होय ज नहि। वीतरागी पुरुष के वीतरागी उपदेश आत्मानुं स्वरूप समझवामां कांइ मदद के कृपा करे छे एम मानवू ते अयथार्थ छे। वीतरागी पुरुष अने तेनो उपदेश बन्ने पर द्रव्य छे तेथी ते आत्माने लाभ करी शके नहि; पण सम्यग्दर्शन पामवामां वीतरागी उपदेश ज निमित्त होई शके एवं ज्ञान कराववा अने सम्यग्दृष्टिने राग होय त्यां सुधी वीतराग प्रभुनुं बहुमान वर्ते छे एटलुं बताववा माटे आ श्लोकमां 'तव-प्रसादेन' आपना प्रसादथी कृपाथी' एवू पद वपरायेलुं छे-२। सम्यग्दृष्टि जीवनी बहारना संयोग--वियोग प्रत्येनी भावना : दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भुवने वने वा। निराकृताशेषममत्वबुद्धेः समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ ।।३।। अन्वयार्थ :-[नाथ !] हे नाथ! [दुःखे-सुखे] दुःखमांअगवडमां, (के) सुखमां [वैरिणि-बन्धुवर्गे] वैरी प्रत्ये के बंधु वर्ग तरफ, [योगे-वियोगे] संयोगमां के वियोगमां (अने) [ भवने वा वने] घरमां के जंगलमां [निराकृत अशेष ममत्वबुद्धेः] संपूर्ण ममत्वबुद्धि छोडीने [मे] मारुं [मन] मन [सदा] सदाय [समं] समभावी [अस्तु] हो-रहे। विशेषार्थ १. लोको बाह्य सगवडने सुख अने बाह्य अगवडने दुःख माने

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