Book Title: Pratikraman Aalochana Samayik Path
Author(s): Jain Mumukshu Mahila Mandal
Publisher: Jain Mumukshu Mahila Mandal

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Page 171
________________ प्रतिक्रमण-आवश्यक ] [ १६५ पुण्य-पाप अनुसार थाय छे। पण ते संयोग-वियोग सुख दुःख आपी शकता नथी । संयोग-वियोगमां इष्ट-अनिष्टनी कल्पना ते दुःखनुं कारण छे । २. श्री प्रवचनसारना बीजा अध्यायनी २४ मी गाथामां कह्युं छे के एसो त्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिष्फलो परमो ||२४|| अर्थ :- रागादि अशुद्ध परिणतिरूप विभावथी उत्पन्न थती जीवनी क्रिया-मोहक्रिया - अफळ नथी पण संसाररूप फळने आपनार होवाथी सफल छे; परंतु सम्यग्दर्शनपूर्वक स्थिरतारूप परम धर्म निष्फळ छे, अर्थात् ते नरनारकादि संसारपर्यायरूप फळथी रहित छे । माटे मिथ्यात्वरूप अशुद्ध परिणति प्रथम छोडवी । ३. शरुआतमां 'पुरा यत् कर्म आत्मना स्वयं कृतम्' - पूर्वे जे कर्म आत्माए पोते कर्यां छे' एम कह्युं छे त्यां पूर्वे कर्म बांधवामां जीवना विकारनुं निमित्तपणुं हतुं एटलुं बताववा माटे छे । जीवे पूर्वे विकारभाव करतां जे कर्म बंधाया ते आत्माए पोते कर्यां छे एम व्यवहारे कहेवामां आवे छे। खरी रीते आत्मा जड कर्म करी शकतो नथी । केमके आत्मा चेतन द्रव्य छे अने जड कर्म अनंत पुद्गल अचेतन द्रव्यो छे । ४. 'स्वयं कृत कर्म निरर्थकम्'' - आ पदनो अर्थ समझवानी जरूर छे । जीव पोते जे भाव करे ते निश्चये स्वयंकृत कर्म छे; अने ते भावकर्मनो कर्ता, भोक्ता जीव एक ज समये ( ते भाव करती वखते ज) थाय छे। शुद्ध भाव करे तो शुद्ध भावनो अने अशुद्ध भाव करे तो अशुद्ध भावनो कर्ता तथा भोक्ता ते ज समये जीव

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