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[प्रतिक्रमण-आवश्यक थाय छे, अर्थात्. ते भावकर्म निरर्थक नथी। जीव ज्यारे अशुद्ध भाव करे त्यारे निमित्तनैमित्तिक संबंधना कारणे जे नवां कर्मो जीव साथे एकक्षेत्रवगाहपणे बंधाय छे ते पण उपचारथी 'स्वयंकृतकर्म' कहेवाय छ।
५. जडकर्म बे प्रकारना छ। १. घाति, २. अघाति; तेमां घाति कर्म निरर्थक जता नथी तेनो अर्थ ए छे के तेना उदय समये जेटले दरज्जे जीव तेमां जोडाय तेटले दरजे आत्मामां विकारी भाव थाय; ते घाति कर्मनो भोगवटो उपचारथी थयो कहेवाय छे अने तेटले दरज्जे ते कर्म निरर्थक न थाय एम कहेवू ए पण उपचार छ।
जो जीव स्वपुरुषार्थथी ते कर्मना उदयमां जेटले अंशे न जोडाय तेटले अंशे ते कर्म निर्जरी जाय। ज्यारे जीवे विकार न करवारूप जे पुरुषार्थ कर्यो त्यारे ते कर्मनो उदय निर्जरारूप थयो, ते रीते ए कर्मनो भोगवटो जीवे कर्यो एम उपचारथी कहेवाय छ । अघाति कर्मना उदय समये बाह्य संयोग-वियोगनो संबंध थाय छ । जीव तेनो ज्ञाता-दृष्टा रहे तो सुखी थाय अने संयोग-वियोगमां इष्ट-अनिष्टनी कल्पना करे तो दुःखी थाय। आ रीते स्वयंकृत कर्म निरर्थक नथी एवो आ पदनो अर्थ समझवो । ३०।
- आत्मस्वरूपमा अनन्यपणानो उपदेश :निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन। विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥३१॥
अन्वयार्थ :- [ देहिनः] जीवना [निजार्जितं] पोताना उपार्जन करेलां [कर्म विहाय] कर्म सिवाय [कः अपि] कोइपण [कस्य अपि] कोइने पण [किंचन] कांइपण [न ददाति] आपतु नथी