Book Title: Pratikraman Aalochana Samayik Path
Author(s): Jain Mumukshu Mahila Mandal
Publisher: Jain Mumukshu Mahila Mandal

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Page 158
________________ १५२] [प्रतिक्रमण-आवश्यक पोतानुं परमात्मस्वरूप प्रगट करी भगवान थाय। आ श्लोकमां पोतानुं परमात्मस्वरूप प्रगट करवानी भावना छ ।१६। श्री जिनेंद्रदेवनी स्तुति चालु :यो व्याफ्को विश्वजनीनवृत्तेः, सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः। ध्यातो धुनीते सकलं विकारं, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।।१७।। अन्वयार्थ :-[यः] जे [विश्वजनीनवृत्तेः] आखा जगतना पदार्थोमां [व्यापक] व्यापक छे, [सिद्धः] सिद्ध छे, [विबुद्धः] विबुद्ध छे, [धुतकर्म बंधः] जेमणे कर्मबंधनो नाश कर्यो छे, [ध्यातः धुनीते सकलं विकारं] जेमनुं ध्यान करतां समस्त विकार धणीधणी ऊठे छे [सः] ते [ देवदेवः] देवाधिदेव [मम] मारा [हृदये] हृदयमां [आस्ताम् ] बिराजमान थाओ। विशेषार्थ १. प्रदेशोनी संख्या अपेक्षाए दरेक जीव असंख्यात प्रदेशी छे अने क्षेत्र अपेक्षाए शरीरना आकारे तेनो वर्तमान आकार होय छे, तेथी क्षेत्र अपेक्षाए जगतना बधा पदार्थोमां केवळी भगवाननो के कोइनो जीव व्यापक नथी, परंतु केवलज्ञानमां क्षेत्र के काळना भेद वगर जगतना सर्व पदार्थो एक समये भगवानने जणाय छे तेथी ज्ञान अपेक्षाए जीवने सर्वगत अथवा सर्वव्यापक कहेवानो व्यवहार छे। २. कर्मना त्रण प्रकार छ :-१. भावकर्म, २. द्रव्यकर्म, ३. नोकर्म (शरीर आदि); ए त्रणे प्रकारना कर्मोथी रहित एवी जे सिद्धदशा ते प्रगट करवानी भावना आ श्लोकद्वारा करी छ । भावकर्म एटले पोताना विकार भावो; तेनाथी ज जीवने खरेखर

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