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[प्रतिक्रमण-आवश्यक माध्यस्थ भावना भाववी' कहेल छे ते निरंतर चिंतववा योग्य छे एम पण कहेल छ।
६. सम्यग्दृष्टि जीवो ज्यारे पोताना स्वरूपमां स्थिर टकी शके नहि त्यारे तेमनुं लक्ष पर तरफ जाय छे अने तेम थतां पोतामां अशुभ भावो न थवा देवा माटे केवा भावोनी भावना करे छे ते श्लोकमां कहुं छे। ते भावोमां पर जीवो तो निमित्त मात्र छे; पर जीवोनुं कांइ करवायूँ कहेल छे एवो आ श्लोकनो अर्थ करवो ते न्यायविरुद्ध छे; केमके एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शकतुं नथी। ज्ञानी जीव सरागदशामां पोतानुं लक्ष पर तरफ जतां केवी भावना करे छे ते ज आ श्लोकमां जणाव्युं छे ।१। सम्यग्दृष्टि जीव स्व तरफ वळे त्यारे तेमनुं चितवन के, होय ?
शरीरतः कर्तृमनन्तशक्तिं, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र ! कोषादिव खडगयष्टिं, तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः।।२।।
अन्वयार्थ :- [जिनेन्द्र ! ] हे जिनेन्द्रदेव ! [अनन्तशक्तिः] अनंत शक्तियुक्त [अपास्त दोषम् ] दोष रहित-परिपूर्ण [आत्मानम् ] आत्माने [कोषादिव खडगयष्टिं] म्यानथी जुदी तरवारनी जेम [शरीरतः] शरीरथी [विभिन्नम्] तद्दन जुदो [कर्तृम् ] करवानी --अनुभववानी [शक्तिं] शक्ति–ताकात [तव] आपनी [प्रसादेन ] कृपावडे [मम] मने [अस्तु] हो-प्राप्त थाओ।
विशेषार्थ १. आत्मा चैतन्य स्वरूप छे अने शरीर जड छे; जो के तेओ एक क्षेत्रे कह्यां छे तो पण जुदां छे; जो तेओ खरेखर जुदां न होय तो कदी पण जुदां थइ शके नहि। जेम तरवार म्यानथी जुदी