Book Title: Pratikraman Aalochana Samayik Path
Author(s): Jain Mumukshu Mahila Mandal
Publisher: Jain Mumukshu Mahila Mandal

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Page 149
________________ प्रतिक्रमण - आवश्यक ] [ १४३ २. कषायनो अर्थ छठ्ठा श्लोकमां कहेवामां आव्यो छे; मिथ्यात्व ते उत्कृष्ट पाप छे, केमके ते अपरिमित मोह छे । चारित्रनो दोष ( राग-द्वेष ) तो परिमित मोह छे । अज्ञानीना कषायमां मिथ्यात्वनो समावेश थई जाय छे, ३. आ श्लोकमां आपेल वैद्यनुं दृष्टान्त खास लक्षमा राखवा योग्य छे । सम्यग्दर्शन ज विकार - रोगने टाळवा माटे प्रथम मंत्र ( गुण) छे। अने सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकनुं चारित्र ते विकारनो सर्वथा नाश करवानो बीजो मंत्र छे । आ सिवाय बीजो कोई उपाय जीवना विकार टाळवा समर्थ नथी । ४. निंदा - आत्मसाक्षीए पोताना दोषोने प्रकट करवा । आलोचना - पोतामां लागेला दोषोने जोई जवा । गर्हणा --पंच परमेष्ठी के गुरुसाक्षीए पोताना दोषो प्रकट करवा । ५. भवदुःखना कारणरूप महापाप ते मिथ्यादर्शन छे; ते टाळीने, चारित्रमां स्थिरता करी, रागरूप मोह टाळवानी अहीं भावना छे । केमके रागना क्षय विना सर्वज्ञता अने वीतरागता प्रकटे नहि अने ते प्रकट्या विना भवनो आत्यंतिक नाश थाय नहि ॥७ अतिक्रम वगेरे दोषोनुं प्रतिक्रमण : -- अतिक्रमं यद्विमतेर्व्यतिक्रमं जिनातिचारं सुचरित्रकर्म्मणः । व्यधादनाचारमपि प्रमादतः प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥ ८ ॥ , अन्वयार्थ : - [ जिन ] हे जिनेश्वर देव ! [विमतेः प्रमादतः ] विमतिना प्रमाद द्वारा [ सुचरित्रकर्म्मणः ] सम्यक्चारित्रक्रियाना [ व्यघात ] भंगथी [ यत् ] जे [ अतिक्रमं ] अतिक्रम, [ व्यतिक्रमं ]

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