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[प्रतिक्रमण-आवश्यक
उत्पन्न करे छे, त्यारे तेने ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मोनी उत्पत्ति थाय छे; तेथी ते कर्मोना संबंधथी आत्मा सदा व्याकुळ ज रहे छे अने ज्यारे आत्मा ज व्याकुळ रहे त्यारे मुनिओने कल्याणनी प्राप्ति पण कयांथी होइ शके ? माटे मन ज कल्याणने रोकनाएं छे.
मोहना नाश माटे प्रार्थना :--
१५. अर्थ:-मारं मन, निर्मळ तथा शुद्ध अखंड ज्ञानस्वरूप आपमां लगाव्यां छतां पण, मृत्यु तो आववानुं ज छे ओवा विकल्प वडे, आपथी अन्य बाह्य समस्त पदार्थो तरफ निरंतर घूम्या करे छे. हे स्वामिन् ! तो शुं करवू ? केम के आ जगतमां, मोहवशात् कोने मृत्युनो भय नथी? सर्वने छे. माटे सविनय प्रार्थना छे के समस्त प्रकारना अनर्थो करनार तथा अहित करनार मारा मोहने नष्ट करो.
__ भावार्थ:-ज्यां सुधी मोहनो संबंध आत्मानी साथे रहेशे त्यां सुधी मारुं चित्त, बाह्य पदार्थोमां घूम्या करशे अने ज्यां सुधी चित्त घूमतुं रहशे त्यां सुधी आत्मामां सदा कर्मोनु आवागमन पण रह्या करशे. आ प्रकारे तो आत्मा सदा व्याकुळ ज रह्या करशे. माटे हे भगवान! आ नाना प्रकारना अनर्थो करनार मारा मोहने सर्वथा नष्ट करो के जेथी मारा आत्माने शान्ति थाय.
सर्व कर्मोमां मोह ज बळवान छे अम आचार्य दशवि छ :
१६. अर्थ:-ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मोमां मोह-कर्म ज अत्यंत बळवान कर्म छे. ओ मोहना प्रभावथी आ मन ज्यां त्यां चंचळ बनी भ्रमण करे छे अने मरणथी डरे छे. जो आ मोह न होय तो निश्चयनय प्रमाणे न तो कोइ जीवे या न तो कोइ मरे. केम के
आपे आ जगतने जे अनेक प्रकारे देख्युं छे ते पर्यायार्थिक नयनी मोह = मोह प्रत्येनुं वलण.