Book Title: Pratikraman
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 8
________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण १. प्रतिक्रमण का यथार्थ स्वरूप मुमुक्षु : मनुष्य को इस जीवन में मुख्यरूप से क्या करना चाहिए? दादाश्री : मन में जैसा हो, ऐसी वाणी बोलना, ऐसा वर्तन करना। हमें जो वाणी से कहना है, और उसके लिए मन बुरा हो तो उसका प्रतिक्रमण करना। प्रतिक्रमण किसका करोगे? किसकी साक्षी में करोगे? तब कहे, 'दादा भगवान' की साक्षी में प्रतिक्रमण करें। जो दिखते हैं वे 'दादा भगवान' नहीं हैं। ये तो भादरण के पटेल हैं, ए. एम. पटेल हैं। 'दादा भगवान', जो भीतर चौद लोक का नाथ प्रकट हो गया है वे हैं। इसलिए उनके नाम से प्रतिक्रमण करें कि हे दादा भगवान, मेरा मन बिगडा उसकी क्षमा माँगता हूँ। मुझे क्षमा करो। मैं भी उनका नाम लेकर प्रतिक्रमण करता हूँ। अच्छे कर्म करें वह धर्म कहलाये और बुरा कर्म करें वह अधर्म कहलाये। और धर्म-अधर्म से परे हो जाना वह आत्मधर्म कहलाये। अच्छे कर्मों की वजह से क्रेडिट (जमाराशि) उत्पन्न होता है और वह क्रेडिट भोगने जाना पड़ेगा। बुरे कर्म करोगे तो डेबिट (उधारराशि) उत्पन्न होगा और वह डेबिट भोगने जाना पड़ेगा। और जिस बहीखाते में क्रेडिट-डेबिट नहीं है, वहाँ आत्मप्राप्ति होगी। मुमुक्षु : इस संसार में आये इसलिए कर्म तो करने ही होंगे न, जानेअनजाने में बुरे कर्म हो जायें तो क्या करना? दादाश्री : हो जाये तो उसका उपाय होगा न फिर। हमेशा बुरा कर्म होने पर तुरन्त पछतावा होता है, और सच्चे दिल से, सिन्सियारिटी से (निष्ठा से) पछतावा करना चाहिए। पछतावा करने के उपरांत फिर से ऐसा हो जाये तो उसकी चिंता मत करें। फिर से पछतावा करना चाहिए। उसके पीछे क्या विज्ञान है उसका आपको खयाल नहीं आता, इसलिए आपको ऐसा लगे कि यह पछतावा करने पर भी बंद नहीं होता है। क्यों बंद नहीं होता, उसके पीछे भी विज्ञान है। इसलिए आप पछतावा करते ही रहें। सच्चे दिल से पछतावा करनेवाले के सारे कर्म धो जाते हैं। बुरा लगा इसलिए पछतावा करना ही चाहिए। प्रश्नकर्ता : शरीर के धर्मों का आचरण करते हैं तो उसके प्रायश्चित करने होंगे? ___दादाश्री : हाँ बिलकुल! जब तक 'मैं आत्मा हूँ' ऐसा भान नहीं होता तब तक पछतावा नहीं होने पर कर्म ज्यादा चिपकेंगे। पछतावा करने से कर्म के बंधन ढिले हो जाते है। वरना उस पाप का फल बहुत बुरा आता है। मनुष्यपन भी चला जाये, और अगर मनुष्य हो तो भी पर उसे हर तरह की मुसीबतें झेलनी पड़े। खाने की, पीने की और मान-प्रतिष्ठा तो कहीं कभी दिखाई नहीं पड़ती। सदैव अपमान। इसलिए यह पछतावा आदि अन्य सभी क्रियाएँ करनी पड़ती है। इसे परोक्ष भक्ति कहते हैं। जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक परोक्ष भक्ति करनी जरूरी है। अब पछतावा किसकी उपस्थिति में करना चाहिए? किसकी साक्षी में करना चाहिए? आप जिसे मानते हैं, कृष्ण भगवान को मानते हैं या दादा भगवान को मानते हैं, जिसे भी मानते हो उसे साक्षी मान कर करना चाहिए। किंतु, उपाय न हो ऐसा इस दुनिया में होता ही नहीं है। उपाय का जन्म पहले होता है, उसके बाद दर्द पैदा होता है। यह संसार खड़ा कैसे हुआ? अतिक्रमण से। क्रमण में कोई हर्ज नहीं है। हमने हॉटल में कोई चीज़ मँगवाकर खाई. और दो रकाबियाँ अपने हाथों टूट गई, पर उसके पैसे देकर बाहर निकलें तो उसमें कोई अतिक्रमण नहीं हुआ, तो फिर उसके प्रतिक्रमण की जरूरत नहीं है। पर रकाबी टूटने

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