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प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण
में सो जायें, तो भी सारी रात कर्म बँधते हैं। 'मैं चन्दुलाल हूँ' इसलिए सोते सोते भी कर्म बँधते हैं। उसकी वजह क्या? क्योंकि वह आरोपित भाव है। इसलिए गुनाह लागू हुआ। 'खद' वाकई चन्दलाल नहीं है और जहाँ आप नहीं हैं वहाँ 'मैं हूँ' ऐसा आरोपण करते हैं। वह कल्पितभाव है, और निरंतर उसका गुनाह लागू होगा न! आपकी समझ में आता है?! फिर मैं चन्दुलाल, इसका ससुर होता हूँ, इसका मामा होता हूँ, इसका चाचा होता हूँ ये सभी आरोपित भाव हैं, उन से निरंतर कर्म बँधते रहते हैं। रात को नींद में भी कर्म बँधते रहते हैं। उससे अब कोई छूटकारा ही नहीं है पर यदि अज्ञान दशा में भी 'मैं चन्दुलाल हूँ' उस अहंकार को यदि आप निर्मल कर दें तो आपको कम कर्म बंधेगे। अहंकार निर्मल करने के पश्चात् फिर क्रियाएँ करनी होंगी। कैसी क्रियाएँ करनी पड़ेगी? कि सवेरे आपकी पुत्रवधू के हाथों कप-रकाबी टूट गये, इस पर आपने कहा कि, 'तेरे अक्ल नहीं है।' इसलिए उसे जो दुःख हुआ, उस समय हमारे मन में ऐसा होना चाहिए कि यह जो मैंने उसे दःख दिया, उसका प्रतिक्रमण होना चाहिए। दु:ख दिया वह अतिक्रमण कहलाये और अतिक्रमण पर प्रतिक्रमण करें तो वह धुल जाये। वह कर्म हलका हो जाये।
उसे कुछ दुःख हो ऐसा आचरण करें तो वह अतिक्रमण कहलाये और अतिक्रमण का प्रतिक्रमण करना चाहिए। और वह बारह महिने बाद करते है वैसा नहीं, 'शूट ऑन साइट' (दोष होते ही तुरंत) ऐसा होना चाहिए। तब ये दु:ख कुछ कम होंगे। वीतराग के कहे गये मतानुसार चलें तो दुःख जायेंगे। वरना तो दु:ख जायेंगे नहीं।
प्रश्नकर्ता : वह प्रतिक्रमण कैसे किया जाये?
दादाश्री : हमने यदि ज्ञान प्राप्त किया हो तो उसका आत्मा हमें मालूम होगा। इसलिए आत्मा को संबोधित करके करने का, अथवा तो भगवान को संबोधित करके करने का; हे भगवान! पश्चाताप करता हूँ, माफ़ी माँगता हूँ और अब फिर से नहीं करूँगा। बस वह प्रतिक्रमण!
प्रश्नकर्ता : वह धुल जायेगा क्या?
दादाश्री : हाँ, हाँ, निश्चितरूप से धुल जायेगा !! प्रतिक्रमण किया इसलिए फिर रहता नहीं न! बहुत भारी कर्म हो तो जली हुई रस्सी के भाँति दिखेगा मगर हाथ से छुने पर झड़ जायेगा।
प्रश्नकर्ता : यह पछतावा कैसे करूँ? सबके सामने करूँ या मन में करूँ?
दादाश्री : मन में, मन ही मन दादाजी को याद करके कि यह मेरी भूल हुई है, अब फिर से नहीं करूँगा ऐसा मन में स्मरण करके करने का, अर्थात् फिर ऐसा करते-करते वह दु:ख सारा विस्मृत हो जायेगा। वह भूल निकल जाती है। किंतु ऐसा नहीं करें तो फिर भूलें बढ़ती जायेंगी।
यह एक ही रास्ता ऐसा है कि खुद के दोष नज़र आते जायें और शूट (खत्म) होते जायें, ऐसा करते-करते दोष खतम होते जायें।
प्रश्नकर्ता : एक ओर पाप किया करें और दूसरी ओर पछतावा किया करें। ऐसा तो चलता ही रहें।
दादाश्री : ऐसा नहीं करना है। जो मनुष्य पाप करे और वह यदि पछतावा करे तो वह नकली पछतावा कर ही नहीं सकता। उसका पछतावा सच्चा ही होगा और पछतावा सच्चा होने पर प्याज की परत की तरह एक परत दूर होगी, उसके बाद फिर दिखने में तो परी प्याज़ दिखे। बाद में दूसरी परत हटेगी। हमेशा पछतावा व्यर्थ जाता नहीं है।
प्रश्नकर्ता : मगर सच्चे मन से माफ़ी माँगे न?
दादाश्री : माफ़ी माँगनेवाला सच्चे मन से ही माफ़ी माँगता है। और झुठे मन से माँगेगा तो भी चलाया जायेगा। तब भी माफ़ी माँगना।
प्रश्नकर्ता : तब तो फिर उसे आदत-सी हो जायेगी?
दादाश्री : आदत हो जाये तो भले हो जाये। मगर माफ़ी माँगना। बिना माफ़ी माँगे तो शामत आई समझो!!! माफ़ी का क्या अर्थ है? वह प्रतिक्रमण कहलाता है। और दोष को क्या कहते है? अतिक्रमण।