Book Title: Pratikraman
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 44
________________ प्रतिक्रमण ७३ ७४ प्रतिक्रमण धुलेगा? आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान से। उससे कर्म हलका हो जायेगा। उसके पश्चात् ज्ञाता-द्रष्टा रहा जाये। उसके लिए तो प्रतिक्रमण निरंतर करना पड़ेगा। जितने 'फोर्स' (प्रबलता) से निकाचित हुआ हो, उतने ही 'फोर्स'वाले प्रतिक्रमण से वह धुलेगा। प्रश्नकर्ता : हम तय करें कि भविष्य में ऐसा नहीं करना। ऐसी भूल फिर करनी ही नहीं है। ऐसा हंडेड परसेन्ट (शत प्रतिशत) भाव के साथ तय करें, फिर भी ऐसी भूल दोबारा होगी कि नहीं होगी? वह अपने हाथ में है क्या? दादाश्री : वह तो होगी न दोबारा। ऐसा है न कि आप एक गेंद यहाँ लाये और मुझे दी। मैंने नीचे पटक दी। मैंने ऐसा एक ही बार किया। मैंने तो गेंद एक ही बार पटकी। अब मैं कहँ कि अब मेरी इच्छा नहीं है। तू उछलना बंद कर दे, तो क्या वह उछलना बंद कर देगी? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : तब क्या होगा? प्रश्नकर्ता : वह तो तीन-चार-पाँच बार उछलेगी। दादाश्री : अर्थात् अपने हाथ से फिर नेचर (कुदरत) के हाथों में गई। फिर नेचर जब बंद करे तब; तो ऐसा यह सब है। हमारी जो भूलें हैं, वे नेचर के हाथ में जाती है। _ 'ज्ञान' नहीं लिया हो तो प्रकृति सारा दिन उलटी ही चला करेगी और अब तो सुलटी ही चला करे। तू सामनेवाले को सुना देगा, पर भीतर से आवाज आयेगी कि, 'नहीं, नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। सुना देने का विचार आया उसका प्रतिक्रमण कीजिए।' और ज्ञान से पहले तो सुना ही देता और ऊपर से कहता कि और सुनाने जैसा था। मनुष्यों का स्वभाव कैसा है कि जैसी प्रकृति हो वैसा खुद हो जाये। जब प्रकृति में सुधार नहीं होता तो कहेगा, 'पीछा छोडो'! अरे, बाहर नहीं सुधरे तो कुछ हर्ज नहीं है, तू खुद को भीतर सुधार! फिर हमारी रिस्पोन्सिबिलिटी (जिम्मेदारी) नहीं है!! इतना भारी यह 'साइंस' (विज्ञान) है!!! बाहर कुछ भी हो उसकी रिस्पोन्सिबिलिटी ही नहीं है। इतना समझ में आ जाये तो हल आ जाये। २२. निपटारा, चिकनी फाइलों से बहुत से लोग मुझे कहते हैं कि, 'दादाजी, समभाव से निपटारा करने जाता हूँ मगर होता नहीं है!' तब मैं कहता हूँ, अरे भैया, निपटारा करने का नहीं है! तुझे समभाव से निपटारा करने का भाव ही रखने का है। समभाव से निपटारा हो या नहीं हो। तेरे अधीन नहीं है। तू मेरी आज्ञा में रहा कर न! उससे तेरा बहुतेरा काम पूरा हो जायेगा और पूरा न हुआ तो वह 'नेचर' के अधीन है। सामनेवाले के दोष दिखाई पड़ना बंद हो तो संसार छूटेगा। हमें गालियाँ सुनायें, नुकसान करें, पीटें तब भी दोष दिखाई नहीं पड़े तब संसार छूटेगा। वरना संसार छूटेगा नहीं। अब सभी लोगों के दोष दिखाई पड़ना बंद हो गये? प्रश्नकर्ता : हाँ, दादाजी। कोई बार दोष नज़र आने पर प्रतिक्रमण कर लेता हूँ। दादाश्री : रास्ता यह है कि 'दादाजी की आज्ञा में रहना है', ऐसा निश्चय करके दूसरे दिन से शुरूआत कर दें। और जितना आज्ञा में रहा प्रश्नकर्ता : नेचर के हाथ में गया, तो फिर प्रतिक्रमण करने से क्या लाभ होता है? दादाश्री : बहुत असर होगा। प्रतिक्रमण से तो सामनेवाले पर इतना भारी असर होता है कि यदि एक घंटा एक आदमी का प्रतिक्रमण करोगे तो उस आदमी के अंदर कुछ नई तरह का, भारी, जबरदस्त परिवर्तन होगा। प्रतिक्रमण करनेवाले ने तो यह ज्ञान प्राप्त किया हुआ होना चाहिए। शुद्ध हुआ, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसी समझवाला, तो उसके प्रतिक्रमण का बहुत भारी असर होगा। प्रतिक्रमण तो हमारा सब से बड़ा हथियार है।

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