Book Title: Pratikraman
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 17
________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण अभिप्राय बदल गया। यह जो कर रहा है उसमें खुद का अभिप्राय एक्सेप्ट (स्वीकार) नहीं करता। नोट हीझ ओपीनियन (खद का अभिप्राय नहीं)! दादाजी का नाम लेकर उसका फिर पछतावा करना। चोरी की, यह गलत किया है और अब ऐसा दुबारा नहीं करूँगा, ऐसा उसे सिखलायें! ऐसा उसे सिखलाने के पश्चात् फिर उसके माता-पिता क्या कहते हैं? 'फिर से चोरी की?' फिर से चोरी हो जाये तब भी फिर से पछतावा करना। पछतावा करने से क्या होता है, यह मैं जानता हूँ। छूटने के लिए और कोई चारा ही नहीं। अर्थात् यह अक्रम विज्ञान ऐसा सिखाता है कि यह जो बिगड़ गया है, वह सुधरनेवाला नहीं है, मगर इस तरीके से उसे सुधार। सभी धर्म कहते हैं कि, 'आप कर्म के कर्ता हैं, त्याग के कर्ता हैं। आप ही त्याग करते हैं। आप त्याग नहीं करते।''नहीं करते' कहना वह भी 'करते हैं', कहने के समान है। इस प्रकार कर्तापन का स्वीकार करते हैं। और कहेंगे, 'मुझ से त्याग नहीं होता' यह भी कर्तापन है। और कर्तापन का स्वीकार, वह सब देहाध्यासी मार्ग है। हम कर्तापन का स्वीकार ही नहीं करते। हमारी पुस्तक में किसी जगह 'ऐसा करो' ऐसा नहीं लिखा होगा। अर्थात् करने का रह गया और 'नहीं करने का' करवाते हैं। 'नहीं करने का' होता नहीं फिर। होगा भी नहीं और बिना वजह भीतर वेस्ट ऑफ टाइम एण्ड एनर्जी (समय और शक्ति का दुर्व्यय), क्या करने का है वह अलग चीज़ है। जो करने का है वह तो आपको शक्ति माँगनी है। और पहले जो शक्ति माँगी थी वह अभी हो रहा है। प्रश्नकर्ता : पहले का तो इफेक्ट (परिणाम) में ही आया है। दादाश्री : हाँ। इफेक्ट में आया। अर्थात् कॉझिझ रूप में आपको शक्ति माँगने की है। हमने नौ कलमों में शक्ति माँगने का कहा है, उसमें पूरा शास्त्र आ जाये। उतना ही करने का। दुनिया में करने का कितना? इतना ही। शक्ति माँगना, अगर कुछ कर्ताभाव से करना हो तो। प्रश्नकर्ता : वह शक्ति माँगने की बात है न? दादाश्री : हाँ। क्योंकि सभी मोक्ष में थोड़े जाते हैं?! किंतु कर्ताभाव से करना हो तो इतना कीजिए, शक्ति माँगिए। शक्ति माँगने का कर्ताभाव से कीजिए, ऐसा कहते हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान नहीं लिया हो उसके लिए यह बात है? दादाश्री : हाँ। ज्ञान नहीं लिया हो, यह जगत् के लोगों के लिए है। वरना अभी लोग जिस रास्ते पर चल रहे हैं न, वह बिलकुल उलटा रास्ता है। इसलिए कोई भी मनुष्य अपना श्रेय ज़रा भी नहीं प्राप्त करेगा। 'करना है मगर होता नहीं', कर्म का उदय टेढ़ा हो तो क्या हो सकता है? भगवान ने तो ऐसा कहा था कि उदय अधीन रहकर इसे जानिए। करने का नहीं कहा था। 'इसे जानिए' इतना ही कहा था, उसके बजाय 'यह किया मगर होता नहीं। करते हैं मगर होता नहीं। इच्छा बहुत ही है मगर होता नहीं' कहते हैं। अरे, लेकिन उसे बिना वजह गा-गा क्यों करता है. निकम्मा, 'मुझ से होता नहीं, होता नहीं।' ऐसा चिंतन करने से आत्मा कैसा हो जाये? पत्थर हो जाये। और यह तो क्रिया करने ही चला है और साथ में 'नहीं होता, नहीं होता, नहीं होता' बोलता है। मैं कहता हूँ कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए। 'नहीं होता' ऐसा तो बोल ही नहीं सकते। तू तो अनंत शक्तिवाला है, हमारे समझाने पर तो 'मैं अनंत शक्तिवाला हूँ' बोलता है। वरना अब तक नहीं होता' ऐसा ही बोलता था। क्या अनंत शक्ति कहीं चली गई है?! मनुष्य स्वभाव कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि मनुष्य कर सके ऐसा नहीं है, क्योंकि करनेवाली परसत्ता है। ये जीव केवल जाननेवाला ही हैं। इसलिए आपको यह जानते रहना है और आप यह जानोगे तो गलत पर जो श्रद्धा हुई थी वह नहीं रहेगी। और आपके अभिप्राय में परिवर्तन होगा। क्या परिवर्तन होगा? 'झूठ बोलना अच्छा है', वह अभिप्राय नहीं रहेगा। वह अभिप्राय नहीं रहा, उसके समान इस दुनिया में और कोई पुरूषार्थ नहीं है। यह बात सूक्ष्म है, पर गहराई से विचार ने योग्य है।

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