Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 02 Jain Rajao ka Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala
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जैन राजाओं का इतिहास को सहन करने वाले देव दूसरे ही हैं। यह देव मेरा नमस्कार को सहन नहीं कर सकता है। यह सुन राजा आश्चर्य में डूब गया और श्राग्रह पूर्वक बिनती की । इसलिये दिवाकरजी ने उसी समय कल्याणमंदिर स्तोत्र बना के भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति करना प्रारम्भ किया जिसका क्रमशः १३ वाँ पद्य पढ़ते ही धरणेन्द्र श्राकर हाजिर हुअा और लिंग काट कर उसके अन्दर स भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रगट हुई। दिवाकरजी ने कहा मेरा नमस्कार सहन करने वाला यह देव है । राजा इस चमत्कार पूर्वक घटना को देख दिवाकरजी का पूर्ण भक्त बन गया अर्थात् जैन धर्म को स्वीकर कर उसका खूब ही प्रचार किया । चारित्रों से पाया जाता है कि राजा विक्रम ने उज्जैन से एक बड़ा भारी तीर्थयात्रार्थ शत्रुजय गिरनारादि का संघ निकाला था।
__ "विक्रम चारित्र" (३४) कुार नगर का राजा देवपाल-जैनराजा ___ श्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर एक समय भूभ्रमन करते - पूर्व देश के कुर्मारपुर में पधारे। वहां का राजादेवपाल सूरिजी क अच्छा स्वागत किया। आचार्यश्री हमेशा राज सभा में जा कर धर्मोपदेश दिया करते थे, जिसका प्रभाव राजा और प्रजा पर काफी पड़ा, राजादेवपाल दिवाकरजी का पूर्ण भक्त बन
+ अवंती सुकमाल की माता ने इस मूर्ति को स्थापित की थी पर ब्राह्मणों के प्रबल्यता समय जैनमूर्ति पर लिंग स्थापन कर दिया फिर दिवाकरजी के प्रयत्न से लिंग फाट कर मूर्ति प्रगट हुई जिनको अवंती पाश्र्वनाथ कहते हैं।