Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 01 Patliputra ka Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala
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प्राचीन जैन इतिहास संग्रह
नरेश महा पद्मानंद के शासन के साथ ही साथ अस्त हो गया। और इसके स्थान पर मौर्य वंश का दिवाकर देदीप्यमान हुश्रा। मौर्य वंश उदय होते ही उन्नति के सर्वोच्च सोपान पर बात की बात में पहुँच गया। नीतिनिपुण चाणक्य की सहायता से मौर्य कुल मुकुट महाराजा श्रीचंद्रगुप्त ने नंदवंश के पश्चात् ममध राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। चंद्रगुप्त ने अपनी कार्य कुशलता और निर्भीक वीरता से इतनी सफलता प्राप्त की कि आप भारत सम्राट की पदवी से विभूषित हुए। इतिहास के काल में तो श्रापही ने सबसे पहिले सम्राट की उपाधि प्राप्त की थी।
महाराजा चंद्रगुप्त ने ग्रीस के ( युनानी ) बादशाह सिकन्दर को तो इस प्रकार पराजित किया कि उसने जीवन भर भारत की ओर आँख उठाकर नहीं देखा । सिकन्दर का देहान्त ई. सं. ३२३ पूर्व हुआ। इसके पश्चात् सेल्यूकस ने भारत पर चढ़ाई की। पर वह भी विफल मनोरथ हुआ। उसने चंद्रगुप्त से एक ऐसी लज्जास्पद संधि की कि काबुल कन्धार और हिरत तक का देश चंद्रगुप्त को मिल गया । सेल्यूकस ने चिर शान्ति स्थाई रखने के हेतु अपनी पुत्रि का विवाह भी चंद्रगुप्त के साथ कर दिया। चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार भारत के बाहिर भी किया था । सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य शूरवीर एवं रण बांकुरा साहसी योद्धा था। यह राजनीति विशारद होने के कारण अपने साम्राज्य में सर्व प्रकार से शांति रखने में समर्थ था।
जैन ग्रंथकारों ने लिखा है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जैनी था । उसके गुरु अंतिम श्रुत केवली प्राचार्य भद्रबाहुस्वामी थे । चन्द्रगुप्त ने जैनधर्म का खूब प्रचार किया था। उसने काबुल,