Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 01 Patliputra ka Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 30
________________ २९ पाटलीपुर का इतिहास आचार्य श्री की ओर अधिक आकर्षित होने लगा। राजा ने इस समस्या को हल करना चाहा । सोचते सोचते सहसा राजा कों जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। राजा को पिछले भव की सब बातें याद आई। राजा ने सोचा एक दिन वह भी था कि मैं भिक्षुक होकर दाने दाने के लिये घर घर भटकता था । केवल पेट भरने के लिये ही मैंने इन आचार्य के पास दीक्षा ली थी उस दीक्षा के ग्रहण करने से एक ही रात्रि में मेरा कल्याण हो गया। इसी दीक्षा के प्रज्जुवल प्रताप से मैं इस कुल में राजा के घर उत्पन्न होकर श्राज राजऋद्धि भोग रहा हूँ। आज मैं सहस्त्रों दासों का स्वामी हूँ। यह सब आचार्य श्री ही का प्रताप है । इनकी कृपा बिना इतनी विपुल सम्पत्ति का अधिकारी बनना मेरे लिये कठिन ही नहीं असम्भव भी था। ___ इस विचार के आते ही राजा सम्प्रति झरोखे से चल कर नीचे आया और आचार्य श्री के चरणकमलों को स्पर्श कर अपने आपको अहोभागी समझने लगा । उसने विधि पूर्वक बन्दना की और वह कहने लगा कि भगवन् मैं आपका एक शिष्य हूँ। आचार्यश्री ने श्रुतज्ञान के उपयोग से सब वृतान्त जान लिया। आचार्यश्री बोले, राजा तेरा कल्याण हो ! तू धर्म कार्य में निरत रहो । धर्म ही से सब पदार्थ प्राप्त होते हैं। सम्प्रति राजा धर्म लाभ सुनकर निवेदन करने लगा कि आप ही के अनुग्रह से मैंने यह राज्य प्राप्त किया है अतएव यह राज्य अब आप स्वयं लेकर मुझे कृतार्थ कीजिये। आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि यह प्रताप मेरा नहीं किन्तु जैनधर्म का है । यह धर्म क्या रंक और क्या राजा लबका सदृश

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