Book Title: Prabhu Veer Ki Shraman Parmpara Author(s): Bhushan Shah Publisher: Mission Jainatva Jagaran View full book textPage 9
________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा द्वितीय नाम कोटिक गच्छ (कोटि गण) आठवीं पाट के आचार्य श्री आर्य सुहस्तिसूरिजी के बारह मुख्य शिष्य थे। उदयगिरि पहाड़ पर क्रोड़ बार सूरिमंत्र का जाप किया। इस कारण उनकी शिष्य परंपरा वीर निर्वाण सं. 300 के आसपास ‘कोटिक गण' नाम से प्रसिद्ध हुई। तथा ऐसा भी कहा जाता है कि आर्य सुस्थित कोटिवर्षा नगरी के होने से ‘कोटिक' कहलाते थे। आर्य सुप्रतिबुद्ध काकंदी नगरी के होने से ‘काकंदक' कहलाते थे।' अतः कोटिक आर्य सुस्थित एवं काकंदक आर्य सुप्रतिबुद्ध से जो गण निकला वह कोटिक गण कहलाने लगा। इस कोटिक गण का इतना विस्तार हुआ कि बाकी के गण आदि इससे आच्छादित हो गये। इस कारण श्रमण प्रवाह में कोटिक गण की परंपरा ही विशेष रूप से आगे तक चलती रही। कोटिक गण की उच्चानागरी, विद्याधरी, वज्री और माध्यमिक चार शाखाएँ और श्रेणिका, तापसी, कुबेरी, ऋषिपालिता, ब्रह्मद्वीपिका, नागिली (नाईल) पद्मा, जयन्ती, तापसी उपशाखाएँ थी। बंभलिज, वाणिज्य, वत्थलिज्ज और प्रश्ववाहन चार कुल थे। यह पुरा ‘कोटिक गण' निग्रंथ गच्छ का ही विस्तारित स्वरूप हैं। जैसे एक बड़ी बैंक का विस्तार बढ़ने पर उसकी अनेक शाखाएँ एवं उपशाखाएँ नियुक्त की जाती हैं। वैसे ही निग्रंथ गच्छ का कोटिक आदि गणों के रूप में तथा उन गणों का भी कुल एवं शाखाओं के रूप में विस्तार हुआ था। इन गच्छों में सिद्धान्त भेद, क्रियाभेद का लवलेश भी नहीं था। अपनी-अपनी कक्षा में रहकर सब मूलभूत जैन सिद्धान्त और संघ को पुष्ट करते थे। संघ के हित का मार्ग सभी मान्य रखते थे। उसमें मतभेदों को स्थान नहीं था। श्री कालकाचार्यजी ने वीर निर्वाण सं. 458 में पंचमी की चतुर्थी की तो सबने मान्य रखी। कभी किसी आचार्य का अभिप्राय अलग आ जावे तो ‘इन आचार्य का यह मत है अन्य आचार्यों का यह मत है' इस प्रकार सभी के शास्त्र अविरुद्ध मत-अभिप्राय मान्य रखकर स्वीकार किये जाते थे। इस तरह आठवीं पाट से श्रमण-प्रवाह कोटिकगण' के रूप में चलता रहा। 1 थेरेहिंतो णं सुट्ठिय-सुपडिबुद्धेहिंतो कोडिय-काकन्दएहिंतो वग्घावच्चसगोत्तेहिं तो एत्थ णं कोडियगणे नामं गणे निग्गए / (कल्पसूत्र स्थविरावली) / ( 9)Page Navigation
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