________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा सकें। जैसा पुस्तक में देखा वैसा बोल गये और विधि-विधान हो गया। विधिकार भले ही ‘परमेश्वर के स्थान पर ‘परमेश्वरी' की क्षमा मांग कर बच जाय, पर अयथार्थ अनुष्ठान कभी सफल नहीं होता। 3. प्रतिष्ठाचार्य और स्नात्रकारविधिकार पूर्ण सदाचारी और धर्मश्रद्धावान् होने चाहिए। आज के प्रतिष्ठाचार्यों और स्नात्रकारों में ऐसे विरल होंगे। इनका अधिकांश तो स्वार्थसाधक और महत्त्वाकांक्षी है, कि जिनमें प्रतिष्ठाचार्य होने की योग्यता ही नहीं होती। स्नात्रकारों में पुराने अनुभवी स्नात्रकार अवश्य अच्छे मिल सकते हैं। उनमें धर्म-श्रद्धा, सदाचार और अपेक्षाकृत निःस्वार्थता देखने में आती है, पर ऐसों की संख्या अधिक नहीं है। मारवाड़ में तो प्रतिष्ठा के स्नात्रकारों का बहुधा अभाव ही है। कहने मात्र के लिए प्रतिष्ठाचार्य का और स्नात्रकारों का काम अवश्य करते हैं। परन्तु इनमें प्रतिष्ठाचार्य की शास्त्रोक्त योग्यता नहीं होती, स्नात्रकारों के लक्षण तक नहीं होते। ऐसे प्रतिष्ठाचार्यों और स्नात्रकारों के हाथ से प्रतिष्ठित प्रतिमाओं में कलाप्रवेश की आशा रखना दुराशामात्र है। 4. स्नात्रकार अच्छे होने पर भी प्रतिष्ठाचार्य की अयोग्यता से प्रतिष्ठा अभ्युदयजननी नहीं हो सकती, क्योंकि प्रतिष्ठा के, तंत्रवाहकों में प्रतिष्ठाचार्य मुख्य होता है। योग्य प्रतिष्ठाचार्य शिल्पी तथा इन्द्र सम्बन्धी कमजोरियों को सुधार सकता है, पर अयोग्य प्रतिष्ठाचार्य की खामियां किसी से सुधर नहीं सकती। इसलिये अयोग्य प्रतिष्ठाचार्य के हाथों से हई प्रतिमा प्रतिष्ठा अभ्युदयजनिका नहीं होती। 5. प्रतिष्ठा की सफलता में शुभ समय भी अनन्य शुभसाधक हैं। अच्छे से अच्छे समय में की हुई प्रतिष्ठा उन्नतिजनिका होती है। अनुरूप समय में बोया हुआ बीज उगता है, फूलता, फलता है और अनेक गुनी समृद्धि करता है। इसके विपरीत अवर्षण काल में धान्य बोने से बीज नष्ट होता है और परिश्रम निष्फल जाता है, इसी प्रकार प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। ज्योतिष का रहस्य जानने वाले और अनभिज्ञ प्रतिष्ठाचार्य के हाथ से एक ही मुहर्त में होने वाली प्रतिष्ठाओं की सफलता में अन्तर पड़ जाता है। जहाँ शुभ लग्न षड्वर्ग अथवा शुभ पंचवर्ग में और पृथ्वी अथवा जल तत्त्व में प्रतिष्ठा होती है वहाँ वह अभ्युदय-जनिका होती है, तब जहा उसी लग्न में नवमांश, षड्वर्ग, 32