Book Title: Prabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 34
________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा हो ऐसा समझ लेता है। मारवाड़ जैसे प्रदेशों में तो प्रतिष्ठा में होने वाली द्रव्योत्पत्ति पर से ही आज प्रतिष्ठा की श्रेष्ठता और हीनता मानी जाती है। प्रतिष्ठाचार्य और विधिकार कैसे हैं, विधि-विधान कैसा होता है इत्यादि बातों को देखने की किसी को फुरसत ही नहीं होती। आगन्तुक संघजन की व्यवस्था करने के अतिरिक्त मानो स्थानिक जैनों के लिए कोई काम ही नहीं होता। प्रतिष्ठाचार्य और विधिकारों के हाथ में उस समय स्थानिक प्रतिष्ठा कराने वाले गृहस्थों की चुटिया होती है; इसलिये वे जिस प्रकार नचाये, स्थानिक गृहस्थों को नाचना पड़ता है। इस प्रकार दस पंद्रह दिन के साम्राज्य में स्वार्थी प्रतिष्ठाचार्य अपना स्वार्थ साधकर चलते बनते हैं। पीछे क्या करना है इसको देखने की उन्हें फुरसत ही नहीं होती, पीछे की चिन्ता गाम को है। अच्छा होगा तब तो ठीक ही है, पर कुछ ऊंचा-नीचा होगा तो प्रत्येक नंगे सिर वाले को पूछेगे-मदिर और प्रतिमाओं के दोष ? परन्तु यह तो ‘गते जले कः खलु पालिबन्धः' इस वाली बात होती है। स्वार्थसाधक प्रतिष्ठाचार्यों के सम्बन्ध में आचार्य श्री पादलिप्तसूरि की फिट्कार देखिये 'अवियाणिऊण य विहिं, जिणबिंबं जो ठवेति मूढमणो। अहिमाणलोहजुत्तो, निवडइ संसार-जलहिंमि।।7।' अर्थात्-‘प्रतिष्ठा-विधि को यथार्थ रूप में जाने बिना अभिमान और लोभ के वश होकर जो ‘जिनप्रतिमा को स्थापित करता है, वह संसार-समुद्र में गिरता है।' उपसंहार प्रतिष्ठाचार्य और प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में कतिपय ज्ञातव्य बातों का ऊपर सार मात्र दिया है। आशा है कि प्रतिष्ठा करने और कराने वाले इस लेख पर से कुछ बोध लेंगे। कल्याणविजय गणी जैन विद्याशाला, अहमदाबाद ता. 19-08-55 _34

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