Book Title: Prabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 33
________________ प्रभुवीर की श्रमण परंपरा पंचवर्ग तथा तत्त्वशुद्धि न हो ऐसे समय में प्रतिमा प्रतिष्ठित होती है तो वह प्रतिष्ठा उतनी सफल नहीं होती। 6. प्रतिष्ठा के उपक्रम में अथवा बाद में भी प्रतिष्ठा-कार्य के निमित्तक अपशकुन हआ करते हैं तो निर्धारित मुहर्त में प्रतिष्ठा जैसे महाकार्य न करने चाहिए, क्योंकि दिनशुद्धि और लग्नशुद्धि का सेनापति 'शकुन' माना गया है। सेनापति की इच्छा के विरुद्ध जैसे सेना कुछ भी कर नहीं सकती, उसी प्रकार शकुन के विरोध में दिनशुद्धि और लग्नशुद्धि भी शुभ फल नहीं देती। इस विषय में व्यवहार-प्रकाशकार कहते हैं“नक्षत्रस्य मुहूर्त्तस्य, तिथेश्च करणस्य च। चतुर्णामपि चैतेषां शकुनो दण्डनायकः॥1॥ अर्थात्-नक्षत्र, मुहूर्त, तिथि और करण इन चार का दण्डनायक अर्थात् सेनापति शकुन है। आचार्य लल्ल भी कहते हैं“अपि सर्वगुणोपेतं, न ग्राह्यं शकुनं विना। लग्नं यस्मानिमित्तानां, शकुनो दण्डनायकः।।1।" अर्थात् - भले ही सर्व-गुण-सम्पन्न लग्न हो पर शुभ शकुन बिना उसका स्वीकार न करना। क्योंकि नक्षत्र, तिथ्यादि निमित्तों का सेनानायक शकुन है। यही कारण है कि वर्जित शकुन में किये हुए प्रतिष्ठादि शुभ कार्य भी परिणाम में निराशाजनक होते हैं। 7. प्रतिष्ठाचार्य, स्नात्रकार और प्रतिमागत गुण दोषः उक्त त्रिकगत गण-दोष भी प्रतिष्ठा की सफलता और निष्फलता में अपना असर दिखाते हैं, यह बात पहिले ही कही जा चुकी है और शिल्पी की सावधानी या बेदरकारी भी प्रतिष्ठा में कम असरकारक नहीं होती। शिल्पी की अज्ञता तथा असावधानी के कारण से आसन, दृष्टि आदि यथा-स्थान नियोजित न होने के कारण से भी प्रतिष्ठा की सफलता में अन्तर पड़ जाता है। 8. अविधि से प्रतिष्ठा करना यह भी प्रतिष्ठा की असफलता में एक कारण है। आज का गृहस्थवर्ग यथाशक्ति द्रव्य खर्च करके ही अपना कर्त्तव्य पूरा हआ मान लेता है। प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधिकार्यों के साथ मानों इसका सम्बन्ध ही न -330

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