Book Title: Prabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 30
________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा समयोचित परिवर्तन किये और विधान विशेष सम्मिलित किये हए प्रतिष्ठाकल्प में गुरु को क्या-क्या कार्य करने और श्रावक को क्या-क्या, इसका पृथक्करण करके विधान विशेष सुगम बनाये हैं। गुणरत्नसूरिजी अपने प्रतिष्ठा-कल्प में लिखते हैं'थुइदाण-मंतनासो, आहवणं तह जिणाण दिसिबंधो। नेत्तुम्मीलणदेसण, गुरु अहिगारा इहं कप्पे // 1 // ‘एतानि गुरुकृत्यानि, शेषाणि तु श्राद्धकृत्यानि इति तपागच्छ-सामाचारीवचनात् सावधानि कृत्यानि गुरोः कृत्यतयाऽत्र नोक्तानि' अर्थात्-"थुइदाण इत्यादि गुरु कृत्य हैं तब शेष प्रतिष्ठा सम्बन्धी सर्व कार्य श्रावक कर्त्तव्य हैं।" इस प्रकार की तपागच्छ की सामाचारी के वचन से इसमें जो जो सावध कार्य हैं वे गुरु-कर्त्तव्यतया नहीं लिखे, इसी कारण से श्री गुणरत्नसूरिजी ने तथा विशालराज शिष्य ने अपने प्रतिष्ठा-कल्पों में दी हुई प्रतिष्ठासामग्री की सूचियों में कंकण तथा मुद्रिकाओं की संख्या 4-4 की लिखी है और साथ में यह भी सूचन किया है कि ये कंकण तथा मुद्रिकाएँ 4 स्नात्रकारों के लिए हैं। उपाध्याय सकलचन्द्रजी ने अपने कल्प में कंकण तथा मुद्राएँ 5-5 लिखी हैं; इनमें से 1-1 इन्द्र के लिए और 4-4 स्नात्रकारों के लिए समझना चाहिए। अन्य गच्छीय प्रतिष्ठा-विधियों में आचार्य को द्रव्य पूजाधिकारविधिप्रपाकर श्री जिनप्रभसूरिजी लिखते हैं “तदनन्तरमाचार्येण मध्यमांगुलीद्वयोर्वीकरणेन बिम्बस्य तर्जनी-मुद्रा रौद्र दृष्ट्या देया। तदनन्तरं वामकरे जलं गृहीत्वा आचार्येण प्रतिमा आछोटनीया। ततश्चन्दनतिलकं, पुष्पपूजनं च प्रतिमायाः।" अर्थात्-उसके बाद आचार्य को दो मध्यमा अंगुलियां ऊँची उठाकर प्रतिमा को रौद्र दृष्टि से तर्जनी मुद्रा देनी चाहिये, बाद में बायें हाथ में जल लेकर क्रूर दृष्टि से प्रतिमा पर छिड़के और अन्य में चन्दन का तिलक और पुष्प पूजा करें। इसी विधिप्रपागत प्रतिष्ठा-पद्धति के आधार से लिखी गई अन्य खरतरगच्छीय प्रतिष्ठा-विधि में उपर्युक्त विषय में नीचे लिखा संशोधन हुआ दृष्टिगोचर होता है 30

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