________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा तपागच्छ के अभ्युदय सूचक भिन्न-भिन्न देव वाणियाँ 1. विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के आरंभ में शासन देवी ने महम्मद खीलजी के मांडवगढ़ के भंडारी एवं तत्रस्थ सुपार्श्वनाथ मंदिर आदि के निर्माता, कवीन्द्र संग्राम सोनी के पूर्वज सांगण सोनी को बताया कि हे सांगण ! भारतवर्ष में उत्तमोत्तम गुरु आचार्य श्री देवेन्द्रसूरि हैं, उनका मुनिवंश विस्तारित होगा और युगपर्यंत चलेगा। तुम इन गुरु की सेवा करो / (गुर्वावली, श्लोक- 138) 2. विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में खरतरगच्छीय आचार्यवर्य श्री जिनप्रभसूरिजी को पद्मावती देवी ने प्रत्यक्ष होकर तपागच्छ के अभ्युदय के विषय में बताया, जो निम्न प्रकार है। 'पुरा श्री जिनप्रभसूरिभिः प्रतिदिनं नव-स्तवनिर्माणपुरस्सर-निरवद्याहार ग्रहणाभिग्रहवद्भिः प्रत्यक्षपद्मावतीदेवीवचसाऽभ्युदयिनं श्री तपागच्छं विभाव्य भगवतां श्री सोम-तिलकसूरीणां स्वशैक्षशिष्यादिपठन विलोकनाद्यर्थं यमकश्लेष चित्रछन्दो-विशेषादि-नव-नवभङ्गी-सुभगाः सप्तशतमिताः स्तवा उपदीकृता निजनामाङ्कितास्तेष्वयं सर्वसिद्धान्तस्तवो बहूपयोगित्वाद्विवियते। ('आ. जिनप्रभसूरि रचित सर्वसिद्धांतस्तव की श्रीसोमोदयगणि कृत अवचूरिः) आ. श्री जिनप्रभसूरिजी खरतरगच्छ के महान प्रभावक एवं विद्वान आचार्य थे। वि. सं. 1331 में उन्होंने लघुखरतर शाखा की स्थापना की थी। सर्व सिद्धान्त- स्तव की अवचूरि के अनुसार आचार्यश्री को रोज नये स्तव का निर्माण करने के बाद ही आहार ग्रहण करने का नियम था। वे मान्त्रिक भी थे, डीसा के पास जघराल गाँव में उनका मिलन आचार्य श्री सोमतिलकसूरिजी से हुआ। एक चूहे ने आ. श्री सोमतिलकसूरिजी की झोली काट दी। आ. श्री जिनप्रभसूरिजी ने मंत्रप्रभाव से सभी चूहों को बुलाया-जिस चूहे ने झोली काटी थी उसे उपदेश देकर विदा किया। उनको पद्मावती देवी प्रत्यक्ष थी। देवी के वचन से 'आगे जाकर तपागच्छ का उदय होगा।' यह जानकर उन्होंने अपने बनाये हुए 700 स्तोत्र तपागच्छ के आचार्य श्री सोमतिलकसूरिजी को अर्पण किये। आ. भ. श्री जिनप्रभसूरिजी द्वारा अपने स्तोत्रों को अर्पण करना उनका गुणानुराग, मध्यस्थभाव और शासनभक्ति को सूचित करता है। (22)