________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा परिशिष्ट-1 शासन एकता!!! गच्छभेद के लिए जो मुख्य सामाचारी एवं मान्यता भेद कारण रूप में थे वे प्रायः अभी विद्यमान नहीं है। जैसे कि खरतरगच्छ में स्त्री पूजा एवं उबले हए पानी को लेने की प्रवृत्ति की प्रचलना नहीं थी तथा अंचलगच्छ में श्रावक की सामायिक में मुंहपत्ति रखने की एवं साधु द्वारा प्रतिष्ठा विधान की मान्यता नहीं थी। जबकि वर्तमान में सभी मूर्तिपूजक गच्छों में स्त्री पूजा, श्रावकों का सामायिक में मुखवस्त्रिका का रखना, साधु द्वारा प्रतिष्ठा विधान, उबला हुआ पानी लेना आदि आमतौर से प्रचलित है। अतः अभी पुनः खरतरगच्छ, अंचलगच्छ एवं तपागच्छ में एकता हो सके, ऐसा वातावरण मौजुद है। जरुरत है, केवल पूर्व की मान्यताओं और परस्पर के प्रति बंधी हई ग्रंथिओं को तोड़ने की एवं छोटी-छोटी सामाचारिओं को गौण करते हुए, अपनी पद-प्रतिष्ठा एवं भक्तों के ममत्व को छोड़ने की। उसी तरह तपागच्छ में भी एक तिथि-दो तिथि की एकता स्थापित करना एवं तीन थुई-चार थुई का समाधान भी अत्यंत जरुरी है। ये प्रयास अगर सफल हो जावे तो श्वेतांबर मूर्तिपूजक समाज एक हो जायेगा एवं क्रमशः संपूर्ण श्वेतांबर समाज को एक करने का तथा तत्पश्चात् सम्पूर्ण जैन संघ को एक करने के सपने साकार हो सकेंगे। Rasa 26