Book Title: Prabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा अभिग्रह धारण किया था। पं. श्री खुशालविजयजी के कथनानुसार-आ. श्री जगच्चंद्रसूरिजी के क्रियोद्धार के समाचार से नाणावाल, कोरंटक, पिप्पलक, राज आदि अनेक शाखाधारी आचार्यों ने उन्हें शुद्ध संवेगी जानकर उनके द्वारा ही क्रियोद्धार करके उनकी आज्ञा का स्वीकार किया था। महामात्य श्री वस्तुपाल और तेजपाल के शत्रुजय यात्रा संघ में आ. श्री जगच्चंद्रसूरिजी आदि 11 श्वेतांबर आचार्य थे। उनके द्वारा करायी गिरनार और आबु की प्रतिष्ठा में भी वे हाजर थे। __7. आ. श्री जगच्चंद्रसूरिजी विहारानुक्रम से सं. 1285 में मेवाड़ के आघाट नगर में (आयड़) पधारे। मेवाड़पति राणा जैत्रसिंह, सूरिजी के दर्शनार्थ पधारे। बारह वर्ष के आयंबिल के तप से तेजस्वी एवं शुद्ध चारित्र प्रभा से देदीप्यमान सूरिजी को राजा नतमस्तक होकर सहसा बोल उठे 'अहो! साक्षात् तपोमूर्ति हैं। चित्तौड़ाधीश राणा जैत्रसिंह ने (वीर निर्वाण सं. 1755) विक्रम संवत् 1285 में आ. श्री जगच्चंद्रसूरिजी को ‘तपा' पदवी से अलंकृत किया। तब से उनका शिष्य परिवार ‘तपागच्छ' इस नाम से प्रसिद्ध हआ। इस सीसोदिया राजवंश ने भी तपागच्छ को अपना माना। बाद में मेवाड़ के राजाओं की विज्ञप्तियाँ, नगरशेठों के कुटुम्बियों के साथ उनके सम्बन्ध और तपागच्छीय आचार्य और श्रीपूज्यों का आज तक होता सन्मान इस बात का साक्षी है। __ आचार्य जगच्चंद्रसूरि जैसे त्यागी तपस्वी थे वैसे ही विद्या निष्णात भी थे। उन्हें अजारी की सरस्वती देवी प्रत्यक्ष थी। उन्होंने आघाट के वाद के प्रसंग में 32 दिगंबर आचार्यों को जीत लिया था। इस कारण राणा जैत्रसिंह ने सूरिजी को वादियों के प्रति हीरे जैसे अभेद्य मानकर 'हीरला श्री जगच्चंद्रसूरि' नाम से संबोधित किया। इस प्रकार श्रमण परंपरा ने वि.सं. 1285 से 'तपागच्छ' यह छट्टा नाम धारण किया। तपागच्छ में दीक्षा के समय नामकरण की विधि में 'दिग-बंधन' अभी भी इस प्रकार होता है। - ‘कोटिक गण-वयरीशाखा-चांद्रकुल'... एवं उनके आगे 1 तपा बिरुद प्राप्ति का सबसे प्राचीन उल्लेख उस घटना के साक्षी उनके ही शिष्य आ. देवेन्द्रसूरि जी के ग्रंथ में मिलता है। क्रमात् प्राप्ततपाचार्येत्याख्या भिक्षुनायकाः। समभूवन् कुले चान्द्रे श्री जगच्चन्द्रसूरयः। (आ. देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ टीका -प्रशस्ति) - 17

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35