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प्रस्तावना
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आदिकी चर्चा है । दूसरे अधिकारमें प्रारम्भके दस दोहोंमें मोक्षका स्वरूप, एकमें मोक्षका फल, उन्नीसमें निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग तथा आठमें अभेदरत्नत्रयका वर्णन है। इसके बाद चौदहमें समभावकी चौदहमें पुण्य पापकी समानता की और इकतालीस दोहोंमें शुद्धोपयोगी के स्वरूपकी चर्चा है। अन्त में परमसमाधिका कथन है ।
परमात्मप्रकाशपर समालोचनात्मक विचार
रचनाकाल तथा कुछ ऐतिहासिक पुरुषोंका उल्लेख ब्रह्मदेवके आधारपर हम इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि प्रभाकर भट्टके कुछ प्रश्नोंका उत्तर देने के लिए योगीन्दुने परमात्मप्रकाशकी रचना की थी। एक स्थलपर प्रभाकर भट्ट को उसके नामसे सम्बोधित किया गया है और 'वह' जिसका अर्थ ब्रह्मदेव 'वस' करते हैं, तथा 'ओइय' ( योगिन् ) शब्दके द्वारा तो अनेकबार उनका उल्लेख आता है। प्रभाकर भट्ट योगीन्दुके शिष्य थे; इसके सिवा उनके सम्बन्धमें हम कुछ नहीं जानते ! भट्ट और प्रभाकर ये दो पृथक् नाम नहीं है, किन्तु एक नाम है। संभवतः भट्ट एक उपाधि रही होगी; जैसे कि कन्नड़ व्याकरण 'शब्दानुशासन' ( १६०४ ई० ) के रचयिता अकलंक भट्टाकलंक कहे जाते हैं। भट्ट प्रभाकरके प्रश्न और योगीन्दुका उन्हें सम्बोधित करना बतलाते हैं कि वे योगीन्दुके एक शिष्य थे, और साधु थे, उनका प्रसिद्ध पूर्वमीमांसक प्रभाकर भट्ट ( लगभग ६०० ई० ) के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । योगीन्दु और प्रभाकर के नामके सिवा ग्रन्थ में किन्हीं आर्य शान्तिके मतका भी उल्लेख है । निःसन्देह इनसे पहले कोई शान्ति नामके ग्रन्थकार हुए होंगे, किन्तु विशेष प्रमाणों के अभाव में हम उन ज्ञान ग्रन्थकारोंके साथ इनकी एकता नहीं ठहरा सकते, जिनके नामके प्रारम्भमें 'शान्ति' शब्द आता है ।
ग्रन्थ-रचनाका उद्देश और उसमें सफलता —जैसा कि ग्रन्थमें उल्लेख है, प्रभाकर शिकायत करता है कि उसने संसार में बहुत दुःख भोगे हैं; अतः वह उस प्रकाशकी खोजमें है, जो उसे अज्ञानान्धकार से मुक्त कर सके। इसलिये सबसे पहले योगीन्दु आत्माका वर्णन करते हैं, आत्म-साक्षात्कारकी आवश्यकता बतलाते हैं, और कुछ गूढ़ आत्मिक अनुभवोंकी चर्चा करते हैं । इसके बाद वे मुक्तिका स्वरूप, उसका फल, और उसके उपाय समझाते हैं मुक्ति के उपायोंका वर्णन करते हुए वे नीति और अनुशासन सम्बन्धी बहुत-सी शिक्षाएं देते हैं। भट्ट प्रभाकरको जिस प्रकाशकी आवश्यकता यो बहुतसी आत्माएं उस प्रकाशकी प्राप्ति के लिये उत्सुक हैं, और जैसा कि ग्रन्थका नाम तथा विषय बतलाते हैं, सचमुच यह ग्रन्थ परमात्मा की समस्यापर बहुत सरल तरीकेसे प्रकाश डालता है ।
विषय वर्णनकी शैली -- जैसा कि ब्रह्मदेवके मूलसे मालूम होता है, स्वयं ग्रन्थकारने ही प्रभाकर भट्टके दो प्रश्नोंके आधारपर ग्रन्थको दो अधिकारोंमें विभक्त किया था। दूसरे भागकी अपेक्षा पहला भाग अधिक क्रमबद्ध है। कहीं कहीं ग्रन्थकारने स्वयं प्रश्न उठाकर उनका भिन्न-भिन्न दृष्टियोंसे समाधान किया है। इस प्रन्थ में शाब्दिक पुनरावृत्तिकी कमी नहीं है, किन्तु इस पुनरावृत्तिसे अन्धकार अनजान न था, क्यों कि वह स्वयं कहता है कि भट्ट प्रभाकरको समझानेके लिये अनेक बातें बार-बार कही गई है। आध्या त्मिक ग्रन्थोंमें किसी बातको बार बार कहनेका विशेष प्रयोजन होता है, वहाँ न्यायशास्त्र के समान युक्तियों का कोटिक्रम और उसके द्वारा सिद्धान्त निर्णय अपेक्षित नहीं रहता । वहाँ ग्रन्थकार के पास नैतिक और आध्यात्मिक विचारोंकी पूँजी होती है, और उसके प्रति पाठकोंको रुचि उत्पन्न करना उसका मुख्य उद्देश होता है, अतः अपने कपनको प्रभावक बनानेके लिये यह एक बाठको कुछ हेर-फेर के साथ दोहराता और २११ दो० २- देखो १.११ । ३-देखो २६१ ।
१- देखो १ अ० ८ दो० और २ अ० ३-देखो २ २११ ।
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