Book Title: Parmatmaprakash
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 178
________________ प्रस्तावना और इस टीकाकी समानताको देखते हुए यह संभव है कि इस टीकाके कर्ताने 'क' टीकासे भी सहायता ली हो। मैंने इस टीकामें ऐसी कोई मौलिक अशुद्धियाँ और पाठान्तर नहीं देखे, जिनके आधारपर इसे ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकासे स्वतंत्र कहा जा सके। इस टीकाका समय-ऊपरकी तुलनासे यह स्पष्ट है कि यह टीका ब्रह्मदेवसे और संभवतः मलधारि बालचन्द्रसे भी बादकी है । यदि इसके कर्ता मुनिभद्रके शिष्य हैं, और यदि यह मुनिभद्र वही है जिनकी मत्यका उल्लेख ई० सन १३८८ के लगभगके उद्री शिलालेखमें पाया जाता है। तो इस टीकाकी रचना ईसाकी १४ वीं शताब्दीके अन्तिम भागमें हो सकती है। ऐसा मालूम होता है कि मुनिभद्रके अनेक प्रसिद्ध शिष्य थे, जिनकी मृत्युका उल्लेख कुछ शिलालेखोंमें पाया जाता है। पं० दौलतरामजीकृत भाषाटोका पं० दौलतरामजी और उनको भाषाटीका-पं० दौलतरामजीकी भाषाटीका, जो इस संस्करणमें मुद्रित है, उनकी भाषा आधुनिक हिन्दी में परिवर्तित रूप है। दौलतरामजीकी भाषा, जो संभवतः उनके समयमें उनकी जन्मभूमिमें प्रचलित थी, आधुनिक हिन्दीसे भिन्न है । इस विचारसे को कई जैनगृहस्थों और साधुओंको यह विशेष उपयोगी होगी। पं० मनोहरलालजीने उसे आधुनिक हिंदीका रूप दे दिया है । मामूली संशोधनके साथ यही रूपान्तर इस दूसरे संस्करणमें छपा है। यहाँ मैं दौलतरामजीके अनुवादका कुछ अंश उद्धृत करता हैं, इससे पाठक उनको भाषाका अनुमान कर सकेंगे "बहरि तिनि सिद्धिनिके समूहिकं मैं बन्दू हूँ। जे सिद्धिनिके समूहि निश्चयनयकरि अपने स्वरूप विष तिष्ठे है, अरि विवहारिनयकरि सर्व लोकालोककू निसंदेहपण प्रत्तक्ष देखे है। परन्तु परिपदार्थनि विष तन्मयी नाहीं, अपने स्वरूपविष तन्मयी है। जो परपदार्थनिविर्ष तन्मयी होई तो पराए सुख दुखकर आप सुखी दुखी होई, सो कदापि नाहीं । विवहारिनयकरि स्थूल सूक्ष्म सकलि कू केवलिज्ञानि करि प्रतक्ष निसन्देह । जाने हैं। काह पदार्थसु रागि द्वेष नाहीं। रागिके हेतुकरि जो काहुँको जाने तो राग द्वेषमई होय, सो इह बड़ा दूषण है। तातें यही निश्चयभया जो निश्चयकरि अपने स्वरूप विष तिष्ठं हैं, पर विर्षे नाहीं । अरि अपनी ज्ञायक शक्ति करि सबिकं प्रतक्ष देखे हैं जान है। जो निश्चयकर अपने स्वरूप विष निवास कया सो अपना स्वरूपही आराधिवे योग्य है यह भावार्थ है ॥५॥" सोलापुरकी एक नई प्रतिसे मैंने यह अंश उद्धृत किया है, और बम्बईकी एक प्राचीन प्रतिके सहारे श्री प्रेमीजीने इसका संशोधन किया है। पं० प्रमीजीका कहना है कि कुछ अन्य प्राचीन प्रतियोंके साथ इसका मिलान करनेपर अब भी भाषासम्बन्धी कुछ भेद निकल सकते हैं। क्योंकि इसे प्रचलित भाषामें लाने के लिये नकल करते समय शिक्षित लेखक यहाँ-वहाँ भाषासम्बन्धी सुधार कर सकता है। अपभ्रंशसाहित्यके विद्याथियोंको इससे एक अच्छी शिक्षा मिलती है और अपभ्रंश ग्रन्थोंकी विभिन्न प्रतियोंमें जो स्वरभेद देखा जाता है, उसपर भी प्रकाश पड़ता है। टीकाका परिचय-इस टीकामें कोई मौलिकता नहीं है । ब्रह्मदेवकी संस्कृत टीकाका यह अनुवादमात्र है । ब्रह्मदेवके कुछ कठिन पारिभाषिक शब्दोंको हिंदी में सुगमतासे समझा दिया है। ब्रह्मदेवके समान दौलतरामजीने भी पहले शब्दार्थ दिया है, और बादको ब्रह्मदेवके अनुसार ही संक्षेपमे भावार्थ दिया है। इस बातको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि इस हिंदी अनुवादके ही कारण जोइन्दु और उनके परमात्मप्रकाशको इतनी ख्याति मिल सकी है। परमात्मप्रकाशके पठन-पाठनमें दौलतरामजीका उतना ही हाथ है, जितना समयसार और प्रवचनसारके पठन-पाठनमें राजमल्ल और पाण्डे हेमराज का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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