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प्रस्तावना
सकते हैं, और न लघुद्रव्यसंग्रहका बृहद् व्यसंग्रह के रूप में परिवर्तन ही स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु एक बात सत्य है कि ब्रह्मदेव धाराके राजा भोजसे , जिसे वे कलिकाल चक्रवर्ती बतलाते हैं, बहुत बादमें हुए हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि ब्रह्म देवके भोज मालवाके परमार और संस्कृत-विद्याके आश्रयदाता प्रसिद्ध भोज ही है। भोजदेवका समय ई० १०१८-१०६० है । ब्रह्मदेवका यह उल्लेख बतलाता है कि वे ११वीं शताब्दीसे भी बहुत बादमें हुए हैं।
ऊपर यह बतलाया गया है कि जयसेनकी टीकाओंका ब्रह्मदेवपर बहत प्रभाव है । जयसेन ईसाकी बारहवीं शताब्दोके उत्तरार्द्धके लगभग हुए हैं। अतः ब्रह्मदेव बारहवीं शताब्दीसे बादके है । इन आभ्यन्तर और बाहिरो प्रमाणोंके आधारपर ब्रह्मदेव सोमदेव (९५९ ई०), धाराके राजा भोज (ई० १०१८-६०). और जयसेन (१२वीं शताब्दीके लगभग) से बादमें हुए है, अतः ब्रह्मदेवको १३वीं शताब्दीका विद्वान् कहा जा सकता है।
मलधारि बालचन्द्रको कन्नडटीका मलधारि बालचन्द्र और उनकी कन्नड़टीका-परमात्मप्रकाशकी 'प' प्रतिमें एक कन्नडटीका पाई जाती है, उसके प्रारम्भिक उपोद्घातसे यह स्पष्ट है कि इस टीकाका मुख्य आधार ब्रह्मदेवकी वृत्ति है । तथा इस बातके पक्ष में भी काफी प्रमाण है कि उसके कर्ताका नाम बालचन्द्र है। संभवतः अपने समकालीन अन्य बालचन्द्रोंसे अपनेको जदा करने के लिए उन्होंने अपने नामके साथ, 'कुक्कुटासन मलपारि' उपाधि लगाई है।
ब्रह्मदेवको टीकासे तुलना-बालचन्द्र लिखते हैं कि ब्रह्मदेवकी टीकामें जो विषय स्पष्ट नहीं हो सके हैं, उन्हें प्रकाशमें लानेके लिये उन्होंने यह टोका रची है । यह स्पष्ट उक्ति बतलाती है कि उन्होंन ब्रह्मदेवका अनुसरण किया है। किन्तु ब्रह्मदेवके मूलकी अपेक्षा बालचन्द्रके मूलमें ६ दोहे अधिक है। कुछ भेदोंको छोड़कर, जो अन्य कन्नड़ प्रतियोंमें भी पाये जाते हैं, दोहोंकी अपभ्रंशभाषाके सम्बन्धमें दोनों एकमत है । किन्तु बालचन्द्रने ब्रह्मदेवके अतिरिक्त, वर्णनोंको संक्षिप्त कर दिया है। दोहोंके प्रत्येक शब्दको व्याख्या करना ही बालचन्द्र का मुख्य लक्ष्य मालूम होता है, उन्होंने ब्रह्मदेवकी तरह भावार्थ बहुत ही कम दिये है । ब्रह्मदेवके उद्धरणोंको भी उन्होंने छोड़ दिया है, किन्तु कुछ स्थलोंपर कन्नड़-पद्य उद्धत किये हैं । ग्रन्थके अन्तमें ब्रह्मदेवके अतिरिक्त वर्णनोंकी उपेक्षा करके उन्होंने केवल शब्दशः अनुवादकी ओर ही विशेष ध्यान दिया है । 'पंडवरामहि' आदि पद्य के बाद बालचन्द्र एक और पद्य देते हैं, जो इस प्रकार है
जं अल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरमणतं ।
तं भव्वजीवसज्झं गंदउ जिणसासणं सुइरं ॥ बालचन्द्र नामके अन्य लेखक-कन्नड़-साहित्यमे बालचन्द्र नामके अनेक टीकाकार तथा ग्रन्थकार हुए हैं, और उनके बारेमें जो सूचनायें प्राप्त होती है, उनके आधारपर एकको दूसरेसे पृथक करना कठिन है । म० आर० नरसिंहाचार्य बालचन्द्र नामके चार व्यक्तियोंको बतलाते हैं । अभिनवपम्पके गुरु बालचन्द्र मुनिके बारेमें लिखते हुए श्री एम्० गोविंद पै लगभग नौ बालचन्द्रोंका उल्लेख करते हैं । किन्तु 'कुक्कुटासन मलघारि' पदवा के कारण यह बालचन्द्र अन्य बालचन्द्रोंसे जुदे हो जाते है । अपने समाननामा अन्य व्यक्तियोंसे अपनेको जुदा करनेके लिये कुछ साधुजन अपने नामके साथ मलधारि विशेषण लगाते थे। श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंमें ऐसे मुनियोंका उल्लेख मिलता है, जैसे, मलधारि मल्लिषेण, मलपारि रामचन्द्र, मलधारि हेमचन्द्र और दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायके मुनिजन इस पदवीका उपयोग करते थे। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी एक मलधारि हेमचन्द्र हए हैं, जो प्रसिद्ध हेमचन्द्रसे जुदे हैं।
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