Book Title: Parmatmaprakash
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 174
________________ प्रस्तावना १२९ ३ परमात्मप्रकाशको टीकाएं 'क' प्रतिकी कन्नडटीका बालचन्द्रको टोका और 'क' प्रतिको कन्नड़टीका-यह लिखा जा चुका है अध्यात्मी बालचन्द्रने जिनने कुन्दकुन्दत्रयीपर कन्नडटीका बनाई है, परमात्मप्रकाशपर भी एक कन्नडटीका रची है। परमात्मप्रकाशको 'क' प्रतिमें एक कन्नड़टीका पाई जाती है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि यह टीका बालचन्द्रकी ही है क्योंकि 'क' प्रतिसे इस सम्बन्धमें कोई सूचना नहीं मिलती और म० आर० नरसिंहाचार्यने बालचन्द्रको टीकाका कुछ अंश नहीं दिया, जिससे 'क' प्रतिकी टीका मिलाई जा सके । कन्नड़टीकाका परिचय-'क' प्रतिकी कन्नड़टीकामें परमात्मप्रकाशके दोहोंकी व्याख्या बहुत अच्छे रूपमें की गई है, जहाँतक मैंने इसे उलट-पलट कर देखा अपभ्रंश शब्दोंका तुल्यार्थक संस्कृत शब्द कहीं भी मेरे देखनेमें नहीं आया, केवल कन्नड़में उनके अथं दिये हैं । अनुवाद के कुछ अंश टीकाकारके भाषापाण्डित्य परिचय देते हैं। मझे कुछ ऐसे शब्द भी मिले. जिनके ठीक ठीक अर्थ टीकाकारने नहीं किये हैं। टीक सरल और सादी है, और दोहोंका अर्थ करने में काफी सावधानीसे काम लिया है। ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाके समान न तो इनमें विशेष दार्शनिक विवेचन ही है, और न उद्धरण ही । इसकी स्वतन्त्रता-ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाके साथ मैंने इसके कई स्थलोंका मिलान किया है, और मैं इस नतीजेपर पहुँचा हूँ कि टीकाकार ब्रह्मदेवको टीकासे अपरिचित है। यदि उनके सामने ब्रह्मदेवकी टोका होती तो उनके समान वे भी अपभ्रंश शब्दोंके संस्कृत रूप देते और विशेष विवेचन तथा उद्धरणोंसे अपनी टीकाकी शोभा बढ़ाते । इसके सिवा दोनोंमें कुछ मौलिक असमानताएँ भी है। ब्रह्मदेवको अपेक्षा 'क' प्रतिमें ११३ पद्य कम है । तथा अनेक ऐसे मौलिक पाठान्तर और अनुवाद है,जो ब्रह्मदेवकी टीकामें नहीं पाये जाते। 'क' प्रतिको टीकाका समय-इस टीकाके गम्भीर अनुसन्धानके बाद मैंने निष्कर्ष निकाला है कि न केवल ब्रह्मदेव टीका से, बल्कि परमात्मप्रकाशकी करीब करीब सभी टीकाओंसे यह टीका प्राचीन मालूम होती है। ब्रह्मदेव और उनकी वृत्ति ब्रह्मदेव और उनकी रचनाएं-अपने टीकाओंमें ब्रह्मदेवने अपने सम्बन्धमें कुछ नहीं लिखा है । द्रव्यसंग्रहकी टीकामें केवल उनका नाम आता है । बहदद्रव्यसंग्रहकी भमिकामें पं. जवाहरलालजीने लिखा है कि ब्रह्म उनकी उपाधि थी, जो बतलाती है कि वे ब्रह्मचारी थे, और देवजी उनका नाम था। यद्यपि आराधनाकथाकोशके कर्ता नेमिदत्तने और प्राकृत श्रुतस्कंधके रचयिता हेमचन्द्रने उपाधिके रूपमें ब्रह्म शब्दका उपयोग किया है किन्तु ब्रह्मदेव नाममें 'ब्रह्म' शब्द उपाधिसूचक नहीं मालूम देता, कारण, जैनपरम्परामें ब्रह्ममुनि, ब्रह्मसेन, ब्रह्मसूरि बादि नामोंके अनेक प्रन्थकार हुये हैं तथा देव कोई प्रचलित नाम भी नहीं है किन्तु प्रायः नामके अन्त में आता है अतः ब्रह्मदेव एक ही नाम है। परम्पराके अनुसार निम्नलिखित रचनाएँ ब्रह्मदेवकी मानी जाती है १-परमात्मप्रकाशटीका २–बृहद्रव्यसंग्रहटीका ३-तत्त्वदीपक ४-ज्ञानदीपक ५-त्रिवर्णाचारदीपक ६-प्रतिष्ठातिलक ७-विवाहपटल और ८-कथाकोश । जबतक ग्रन्थ न मिलें, तबतक नम्बर ३, ४ और ७ के विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता। संभवतः नामके आदिमें ब्रह्म शब्द होनेके कारण ब्रह्मनेमिदत्तका कथाकोश और ब्रह्मसूरिके त्रिवर्णाचार (दीपक) और प्रतिष्ठातिलकको गलतीसे ब्रह्मदेवके नामके साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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