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और ऐसी कड़ाई के लिये उन्होंने कैफियत भी दी है किन्तु पिशेल तथा गुणे इसकी शिकायत करते हैं । इसी कड़ाईने उनसे उक्त सूत्र तथा उसके उदाहरणको मूलसे पृथक् कराके परिशिष्ट में डलवा दिया है । हॅर्लेका कहना है लेखकों की कृपासे यह सूत्र मूलमें आ मिला है । वे कहते हैं कि व्याकरणके जिस प्रसंग में उक्त सूत्र अपने उदाहरण के साथ आता है, वह व्यवस्थित नहीं है। उनके इस मतसे हम भी सहमत है। किन्तु इस बातका स्मरण रखते हुए कि सूत्रोंके क्रम में परिवर्तन किया गया है, हम उसकी मौलिकताको अस्वीकार नहीं कर सकते । चण्ड एक अपभ्रंश भाषासे परिचित हैं, जिसमें र, जब वह किसी शब्द में द्वितीय व्यञ्जनके रूपमें आता है, सुरक्षित रहता है । अभ्रंश भाषा में यह बात पाई जाती है; हेमचन्द्रके कुछ उदाहरणोंमें तथा रुद्रटके श्लेय-पद्योंमें भी इस बातको चित्रित किया गया है। हमें आशा है कि केवल एक सूत्र के द्वारा चष्टने अपभ्रंशका पृथककरण न किया होगा अतः अन्य सूत्रों को भी चण्डकृत स्वीकार करनेपर अपभ्रंशके सम्बन्धमें अधिक जानकारी हो जाती है । यह स्वाभाविक है कि अपने सूत्रोंके उदाहरणमें वैयाकरण काव्य-ग्रन्थोंसे पद्य उद्धृत करते हैं । हेमचन्द्र व्याकरणमें उक्त पद्यका न पाया है यह इस बातका निराकरण करता है कि हेमचन्द्र के व्याकरणसे लेकर लेखकोंने उसे यहाँ मिला दिया होगा। गुणेका कहना है कि यह सूत्र मूल ग्रन्थका ही है और हम इससे सहमत हैं
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जाना निरर्थक नहीं
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चण्डके समय के बारेमें अनेक मत हैं । हॅन्लेंका कहना है कि ईसा से तीन शताब्दी पूर्वके कुछ बाद और ईस्वी सन्के प्रारम्भसे पहले चण्डका व्याकरण रचा गया है। हॅग्लॅके अनुसार उक्त सूत्र तथा उसके उदाहरण वररुचिसे भी बादमें ग्रन्थ में सम्मिलित किये गये हैं किन्तु कितने बाद में सम्मिलित किये गये हैं, यह वह नहीं बताते हैं। वररुचिका समय ५०० ई० के लगभग बतलाया जाता है। गुणे का कहना है कि चण्ड उस समय हुए हैं, जब अपभ्रंश केवल आभीरोंके बोलचाल की भाषा न थी बल्कि साहित्यिक भाषा हो चुकी थी, अर्थात् ईसाकी छट्ठी शताब्दी के बादमें । इस प्रकार चण्डके व्याकरण के व्यवस्थित ( revised ) रूपका समय ईसाकी सातवीं शताब्दी के लगभग रखा जा सकता है, अतः परमात्मप्रकाशको प्राकृतलक्षणसे पुराना मानना चाहिये ।
परमात्मप्रकाश
जोइन्दु समयकी आरम्भिक अवधि - ऊपर यह बताया गया है कि जोइन्दु, कुन्दकुन्दके पाद और पूज्यपाद के समाधिशतकके बहुत ऋणी है। वास्तवमें परमात्मप्रकाश में समाधितक के कुछ तात्त्विक विचारोंको बड़े परिश्रम से निबद्ध किया है। कुन्दकुन्दका समय ईस्वी सन्के प्रारम्भके लगभग है. और पूज्यपादका पाँचवीं शताब्दी के अन्तिम पादसे कुछ पूर्व इस चर्चा के आधारपर में परमात्मप्रकाशको । समाधिशतक और प्राकृतलक्षणके मध्यकालकी रचना मानता हूँ। इसलिये जोइन्दु ईसाकी छट्ठी शताब्दी में ये है ।
१. अपभ्रंग पाटावली में थी. एम. सी. मोदीने परमात्मप्रकाशसे भी कुछ पद्य संकलित किये है। उनपर टिप्पण करते हुए उन्होंने मेरे 'जोइन्दु' विषयक लेखका उल्लेख किया है, और लिखा है कि यद्यपि जोइन्दुको हेमचन्द्रका पूर्वज कहा जा सकता है किन्तु उन्हें वि. सं. की दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दोंसे भी पहलेका बतलाना ठोक नहीं है। श्री मोदीके निष्कर्ष निकालने ढंगको देखकर मुझे मोक्षमूलरके एक वाक्यका स्मरण आता है - "ऐतिहासिक व्यक्तियोंका समय जाननेकी विद्या केवल रुचिकी बात नहीं है, जो केवल स्मरणके प्रभावसे ही निश्चित की जा सके। अपभ्रंश स्वरोंका विचार करनेवर 'अण्णु' और 'अणु' समय निर्णय करने में सहायक नहीं हो सकते । यद्यपि ब्रह्मदेवने 'जवला' का अर्थ 'समीपे' किया है किन्तु यह अर्थं बिल्कुल अप्रासङ्गिक हैं । यह संस्कृत के 'यमल' शब्द से बना है, जिसका अर्थ 'जोड़ा' होता है । 'जवल' शब्द श्वेताम्बर आगमोंमें भी आता है । अपभ्रंश में 'म' का 'व' हो जाता है ।
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