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परमात्मप्रकाश
जोइन्दुका समय
समयका विचार -- जोइंदुके उक्त दोनों ग्रंथोंसे उनके समय के बारेमें कुछ भी मालूम नहीं होता । अतः अब हमारे सामने एक हो मार्ग शेष रह जाता है, और वह है जोइन्दुके ग्रंथसे उद्धरण देनेवाले ग्रंथों का निरीक्षण | निम्नलिखित प्रमाणों के आधार पर हम जोइन्दुके समयकी अंतिम अवधि निर्धारित करनेका प्रयत्न करते है
१ श्रुतसागर, जो ईसाकी सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुए हैं, षट्प्राभृतकी टोकामें परमात्मप्रकाशसे ६ पद्य उद्धृत करते हैं ।
२ परमात्मप्रकाशपर, मलधारि बालचंद्रने कनड़ी में और ब्रह्मदेवने संस्कृत में टीका बनाई है, और उन दोनोंका समय क्रमशः ईसाको चौदहवों और तेरहवीं शताब्दी के लगभग है ।
३ जयसेन, जिन्होंने कुंदकुंदके पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसारपर संस्कृत में टीकाएँ रची हैं, जोइन्दु और उनके दोनों ग्रंथोंसे अच्छी तरह परिचित हैं । समयसारको टीका में वे परमात्मप्रकाशका उल्लेख करते हैं, और उससे एक पद्य भी उद्धृत करते हैं । पञ्चास्तिकायकी टीका में भी वे एक पद्य उद्धृत करते हैं, जो योगसारका ५६ वाँ पद्य है । जयसेनका समय ईसाकी बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्धके लगभग है ।
४ ऊपर यह बतलाया है कि हेमचंद्र परमात्मप्रकाशसे परिचित हैं, उन्होंने परमात्मप्रकाशसे कुछ सामग्री ली है; और अपने अपभ्रंश-व्याकरणके सूत्रोंके उदाहरणमें, थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ परमात्मप्रकाशसे कुछ दोहे भी उद्धृत किये हैं । हेमचंद्र १०८९ ई० में पैदा हुए और ११७३ ई० में स्वर्गवासी हुए। किसी भाषा इतिहास में यह कोई अनहोनी घटना नहीं है कि साहित्यिक रूपमें अवतरित होनेके बाद ही - चाहे वह साहित्यिकरूप परम्परागत स्मृति रूपमें रहा हो या पुस्तकरूपमें — उस भाषा के विशाल व्याकरणकी रचना होती है | अतः इस कल्पनाके लिये पर्याप्त साधन नहीं हैं कि हेमचंद्र के द्वारा निबद्ध अपभ्रंश ही उस समयकी प्रचलित भाषा थी । यह कहना अधिक युक्तिसंगत होगा कि अपने व्याकरणके द्वारा उन्होंने अपभ्रंशके साहित्यिक रूपको निबद्ध किया है, और यह रूप उनके समयमें प्रचलित भाषाके पूर्वका या उससे भी अधिक प्राचीन रहा होगा । क्योंकि व्याकरणका आधार केवल बोलचालकी भाषा नहीं होती । अतः हेमचंद्रसे कमसे कम दो शताब्दी पूर्व जोइंदुका समय मानना होगा ।
५ प्रो० हीरालालजीने बतलाया है कि हेमचंद्रने रामसिंहके दोहापाहुड़से कुछ पद्य उद्धृत किये हैं और रामसिंहने जोइंदुके योगसार और परमात्मप्रकाशसे बहुतसे दोहे लेकर अपनी रचनाको समृद्ध किया है । अतः जोइंदु हेमचंद्र के केवल पूर्ववर्ती ही नहीं है किंतु उन दोनोंके मध्य में रामसिंह हुए हैं ।
६ ऊपर में बतला आया हूँ कि देवसेनके तत्त्वसारके कुछ पद्य परमात्मप्रकाशके दोहोंसे बहुत मिलते हैं। यह भी संभव हो सकता है कि दोनोंके रचयिताओंने किसी एक स्थानसे उन्हें लिया हो। किंतु पद्योंकी परिस्थिति और ऊपर बतलाये गये कारणोंको दृष्टिमें रखते हुए मेरा मत है कि देवसेनने योगीन्दुका अनुसरण किया है । अपनी रचनाओंमें देवसेन ने अपने पूर्ववर्ती ग्रंथोंका प्रायः उपयोग किया है। उन्होंने वि० सं० ९९० (९३३ ई०) में अपना दर्शनसार समाप्त किया था ।
७ नीचेके दो पद्य तुलनाके योग्य हैं
१ योगसार, ६५ -
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विरला जाहिं तत्तु बुहु विरला णिसुनहिं तत्तु । विरला झायहिं तत्तु जिय विरला धारहिं तत्तु ॥
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