Book Title: Parmatmaprakash
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 169
________________ १२४ परमात्मप्रकाश कारणोंसे प्रो० हीरालालजीने लक्ष्मीचन्द्रको इसका कर्ता नहीं माना। १ 'भ' प्रतिके अन्तिम पद्यमें लिखा है कि यह ग्रन्थ योगीन्द्रने बनाया है, इसकी पञ्जिका लक्ष्मीचन्द्रने और वृत्ति प्रभाचन्द्रने । २ मल्लिभूषणके शिष्य लक्ष्मण ही लक्ष्मीधर हैं। ३ 'प' प्रतिका लेख 'लक्ष्मीचन्द्रविरचिते' लेखककी भूलका परिणाम है उसके स्थानपर 'लक्ष्मीचन्द्रलिखिते' या 'लक्ष्मीचन्द्रार्थलिखिते' होना चाहिए था। ४ लक्ष्मीचन्द्ररचित किसी दूसरे ग्रन्थसे हम परिचित नहीं हैं। इसका समाधान निम्न प्रकार है-१'भ' प्रतिका अन्तिम पद्य बादमें जोड़ा गया है, क्योंकि वह अन्तिम सन्धि 'इति श्रावकाचारदोहकं लक्ष्मीचन्द्र विरचितं समाप्तम्' के बाद आता है और उसका अभिप्राय भो सन्धिसे विरुद्ध है। २ '' प्रतिके अन्त में लिखे लक्ष्मण और लक्ष्मीचन्द्र एक ही व्यक्तिके दो नाम नहीं हैं, क्योंकि पहले "इति उपासकाचारे आचार्य श्रीलक्ष्मीचन्द्रविरचिते दोहकसूत्राणि समाप्तानि" लिखा है, और फिर लिखा है कि सम्वत् १५५५ में यह दोहाश्रावकाचार मल्लिभूषणके शिष्य पं० लक्ष्मणके लिये लिखा गया। इससे स्पष्ट है कि सन्धिमें ग्रन्थकारका नाम आया है और बादकी पंक्ति लेखकने लिखी है। ३ जब लक्ष्मीचन्द्र और लक्ष्मणकी एकता हो सिद्ध नहीं हो सकी तो 'प' प्रतिके पाठमें सुधार करनेका कारण ही नहीं रहता। ४ अन्तिम आधार भी अन्य तीन आधारोंपर ही निर्भर है, अत: उसके बारेमें अलग समाधान करनेको आवश्यकता नहीं है। इस तरह लक्ष्मीचन्द्रके विरुद्ध प्रो० हीरालालजीको आपत्तियां उचित नहीं है और उनका दावा कि देवसेन इसके कर्ता है, प्रमाणित नहीं हो सका, अतः श्रुतसागरके उल्लेख तथा अन्य प्रमाणों के आधारपर लक्ष्मीचन्द्रको ही सावयधम्मदोहाका कर्ता मानना चाहिये । यह लक्ष्मीचन्द्र श्रुतसागरके समकालीन लक्ष्मीचन्द्रसे जुदे हैं। जहाँतक हम इनके बारेमें जानते हैं, श्रुतसागर और ब्रह्म नेमिदत्त (१५२८ ई०) दोनोंसे यह अधिक प्राचीन है। दोहापाहुड परिचय-इस ग्रन्थकी उपलब्ध दो प्रतियोंमेंसे एकमें इसका नाम दोहपाहुड़ लिखा है, और दूसरीमें पाहुड़दोहा । प्रो० होरालालजीने इसकी प्रस्तावनामें इसके नामका अर्थ समझाया है, और उनके बतलाये अर्थके अनुसार भी ग्रन्थका नाम दोहापाहुड़ होना चाहिये । परमात्मप्रकाशकी तरह यह भी एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है, इसमें ग्रन्थकारने आत्मतत्त्वपर विचार किया है। इसकी उपलब्ध प्रति अपनी असली हालतमें नहीं है; उसके अन्तमें दो पद्य संस्कृतमें है, और दोहा नं०:११-जिसमें रामसिंहका नाम आता है, जो एक प्रतिके अन्तिम वाक्यके अनुसार ग्रन्थके रचयिता है-के बाद दो गाथाएँ महाराष्ट्रीमें हैं। जोइन्दु-'क' प्रतिको अन्तिम सन्धिमें इसे योगेन्द्रकी रचना बतलाया है, और इसके बहुतसे दोहे परमात्मप्रकाश और योगसारसे मिलते जुलते भी हैं । किन्तु निम्नलिखित कारणोंसे इसको योगीन्द्रकी रचना मानना साधार प्रतीत नहीं होता-१ परमात्मप्रकाश और योगसारकी तरह इसमें उन्होंने अपना नाम नहीं दिया, जबकि पद्य नं० २११ में रामसिंहका नाम आता है। २ दोहापाहुड़में अकारान्त शब्दके षष्ठीके एकवचवमें 'हो' और 'हूँ' प्रत्यय आते हैं, किन्तु परमात्मप्रकाशमें केवल 'है' ही पाया जाता है, तथा तुहारउ, तुहारी, दोहिं मि, देहहंमि, कहिमि आदि रूप परमात्मप्रकाशमें नहीं पाये जाते । ३ 'द' प्रतिके अन्तिम वाक्य में रामसिंहको इसका कर्ता बतलाया है, जिसका नाम पद्य नं० २११ में भी आता है। प्रारम्भमें मुझे सन्देह था कि परमात्मप्रकाशके 'शान्ति' को तरह क्या रामसिंह भी कोई प्राचीन ग्रन्थकार है ? किन्तु दोहापाहुड़की गहरी छानबीनके पश्चात मैं इस परिणामपर पहुंचा हैं कि इसके जोइन्दुकृत होने में कोई प्रबल प्रमाण नहीं है । कुछ पद्योंकी समानता और अपभ्रंश भाषाको लक्षमें रखकर किसीने इसकी सन्धिमें योगीन्द्रका नाम जोड़ दिया है, जबकि ग्रन्थमें रामसिंहका नाम आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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