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परमात्मप्रकाश
जोड़ दिया है । अतः ब्रह्मदेवकी केवल दो ही प्रामाणिक रचनाएँ रह जाती है। एक परमात्मप्रकाशवृत्ति और दूसरी द्रव्यसंग्रहवृत्ति ।
परमात्मप्रकाशवृत्ति-परमात्मप्रकाशकी वृत्तिमें ब्रह्मदेवजीने अपना नाम नहीं दिया । बालचन्द्र ब्रह्मदेवकी एक संस्कृतटीकाका उल्लेख करते हैं, दूसरे, दौलतरामजी संस्कृतवृत्तिको ब्रह्मदेवरचित कहते हैं, तीसरे, परमात्मप्रकाशकी वृत्ति द्रव्यसंग्रहकी वृत्तिसे, जिसमें ब्रह्मदेवने अपना नाम दिया है, बहुत मिलती जुलती है । अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि दोनों वृत्तियाँ एक ही ब्रह्मदेवकी है। ब्रह्मदेवकी व्याख्या शुद्ध साहित्यिक व्याख्या है, वे अर्थपर अधिक जोर देते हैं, इसलिये व्याकरणकी गुत्थियां एक दो स्थानपर ही सुलझाई गई हैं । सबसे पहले वे शब्दार्थ देते हैं, फिर नयोंका-खासकर निश्चयनयका अवलम्बन लेते हुए विशेष वर्णन करते हैं। किन्तु उनके ये वर्णन द्रव्यसंग्रहकी टीकाके वर्णनोंके समान कठिन नहीं है । यदि यह टीका न होती तो परमात्मप्रकाश इतना प्रसिद्ध न होता; उसकी ख्यातिका कारण यह टीका ही है ।।
जयसेन और ब्रह्मदेव-पदच्छेद, उत्थानिका, प्रकरणसंगत चर्चा तथा ब्रह्मदेवकी टोकाकी कुछ अन्य बातें हमें जयसेनको टोकाकी याद दिलाती है। ब्रह्मदेवने जयसेनका पूरा पूरा अनुकरण किया है । परमात्मप्रकाशकी टीकाकी कुछ चर्चाएँ जयसेनके पञ्चास्तिकायकी टीकाकी चर्चाओंके समान है। उदाहरणके लिये परमात्मप्रकाश २-२१ और पञ्चास्तिकाय २३. प. प्र. २-३३ और पंचा० १५२, तथा प्र. प. २-३६ और पंचा०१४६ की टीकाओंको परस्परमें मिलाना चाहिए।
ब्रह्मदेवका समय-ब्रह्मदेवने अपने ग्रन्थोंमें उनका रचना-काल नहीं दिया है । पं० दौलतरामजी (ई. १८ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध) कहते हैं कि ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाके आधारपर उन्होंने अपनी हिन्दीटीका बनाई है । पं. जवाहरलालजी लिखते हैं कि शुभचन्द्रने कत्तगेयाणुप्रोक्खाकी टीकामें ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रहवृत्तिसे बहुत कुछ लिया है। मलधारि बालचन्द्र ब्रह्मदेवकी टीकाका स्पष्ट उल्लेख करते हैं, किन्तु बालचन्द्रका समय स्वतन्त्र आधारोंपर निश्चित नहीं किया जा सकता । जैसलमेरके भण्डारमें ब्रह्मदेवकी द्रव्यसंग्रहवत्तिकी एक प्रति मौजद है जो संवत् १४८५ (१४२८ ई०) में माण्डवमें लिखी गई थी, उस समय वहाँ राय श्रीचान्दराय राज्य करते थे । इस प्रकार इन बाहिरी प्रमाणोंके आधारपर ब्रह्मदेवके समयकी अन्तिम अवधि १४२८ ई० से पहले ठहरती है । अब हम देखेंगे कि उनकी रचनाओंसे उनके समयके सम्बन्धमें हम क्या जान सकते हैं ? परमात्मप्रकाशकी टोकामें ब्रह्मदेवने शिवार्यकी आराधनासे, कुन्दकुन्द (ई० को प्रथम श०) के भावपाहुड, मोक्खपाहुड, पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसारसे, उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे, समन्तभद्र (दूसरी शताब्दो) के रत्नकरण्डसे, पूज्यपाद (५वीं शताब्दी के लगभग) के संस्कृत सिद्धभक्ति और इष्टोपदेशसे, कुमारकी कत्तिगेयाणुष्पेक्खासे, अमोघवर्ष (ई० ८१५ से ८७७ के लगभग) को प्रश्नोत्तररत्नमालिकासे, गुणभद्रके (जिनने २३ जून ८९७ में महापुराण समाप्त किया) आत्मानुशासनसे, संभवतः नेमिचन्द्र (१० वीं श०) के गोम्मटसार जीवकाण्ड और द्रव्यसंग्रहसे अमृतचन्द्रके (लगभग १० वों श० को समाप्ति) पुरुषार्थसिद्धयुपायसे अमितगति (लगभग १० वीं श• का प्रारम्भ) के योगसारसे, सोमदेवके (९५९ ई०) यशस्तिलकचम्पूसे, रामसिंह (हेमचन्द्रके पूर्व) के दोहापाहुडसे, रामसेन (आशाधर-१३ वों श० का पूर्वार्द्धसे पहिले) के तत्त्वानुशासनसे और पद्मनन्दिकी (पद्मप्रभ-१२ वीं श० का अन्तके पहिले) पञ्चविंशतिकासे पद्य उद्धृत किये हैं । उद्धरणोंकी इस छानबीनसे हम निश्चित तौरपर कह सकते हैं कि ब्रह्मदेव सोमदेवसे (१० वीं श० का मध्य) बादमें हुए हैं । द्रव्यसंग्रहवृत्तिको आरम्भिक उत्थानिकामें ब्रह्मदेव लिखते हैं कि पहले नेमिचन्द्रने लधुद्रव्यसंग्रहकी रचना की थी, जिसमें केवल २६ गाथाएँ थीं। बादको मालवदेशेकी धारानगरीके राजा भोजके आधीन मण्डलेश्वर श्रीपालके कोषाध्यक्ष, आश्रमपुर निवासो सोमके लिये इसे बढ़ाया गया । यतः सामयिक प्रमाणोंसे इस बातकी पुष्टि नहीं होती, अतः हम न तो नेयिचन्द्रको धाराके राजा भोजका समकालीन ही मा ने
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