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प्रस्तावना
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उल्लेखनीय शाब्दिक समानता भी नहीं है । पाँचवें, सावयधम्मदोहामें पञ्चमो और षष्ठोके एक वचनमें 'हु' आता है, जब कि परमात्मप्रकाशमें एकवचन और बहुवचन दोनोंमें 'है' आता है। अतः इस ग्रंथको जोइन्दुकृत मानने में कोई भी प्रबल प्रमाण नहीं है। संभवतः इसकी भाषा तथा कुछ विचारोंकी साम्यताको देखकर किसोने जोइन्दुको इसका कर्ता लिख दिया होगा।
देवसेन-निम्नलिखित आधारोंपर प्रो० होरालालजीका मत है कि इसके कर्ता देवसेन है। १ 'क' प्रतिके अन्तिम पद्यमें 'देवसेनै उवदिट्ठ' आता है। २ देवसेनके भावसंग्रह और सावयधम्मदोहामें बहुत कुछ समानता है।
३ देवसेनको 'दोहा' रचनेकी बहुत चाह थो । और संभवतः उस समय छन्दशास्त्रमें यह एक नवीन आविष्कार था।
किन्तु उनके उक्त आधार प्रबल नहीं हैं । प्रथम, 'क' प्रति विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि अन्य प्रतियोंको अपेक्षा उसमें पद्यसंख्या सबसे अधिक है, तथा वह सबके बादकी लिखी हुई है। इसके सिवा, जिस दोहेमें देवसेनका नाम आता है, वह केवल सदोष ही नहीं है किन्तु उसमें स्पष्ट अशुद्धियाँ है। उसका 'देवसेने' पाठ बड़ा ही विचित्र है, और पुस्तकभरमें इस ढंगका दूसरा उदाहरण खोजनेपर भी नहीं मिलता । छन्दशास्त्रकी दृष्टिसे भो उस दोहेकी दोनों पंक्तियाँ अशुद्ध हैं, और सबसे मजेकी बात तो यह है कि प्रो० होरालालजीने स्वसम्पादित सावयधम्मदोहाके मूलमें उसे स्थान नहीं दिया। अतः इस प्रकारके अन्तिम दोहेका सम्बन्ध सावयधम्मदोहाके कर्ताके साथ नहीं जोड़ा जा सकता, और हम यह विश्वास नहीं कर सकते कि दर्शनसारके
यिता देवसेनने इसे रचा है। देवसेनके चार प्राकृत ग्रंथोंका निरीक्षण करनेपर हम देखते है कि भावसंग्रहमें वे अपना नाम 'विमलसेनका शिष्य देवसेन' देते है; आराधना सारमें केवल 'देवसेन' लिखा है। दर्शनसारमें 'धारानिवासी देवसेन गणी' आता है, और तत्त्वसारमें 'मनिनाथ देवसेन' लिखा है। किन्तु सावयधम्मदोहामें इनमेंसे एकका मी उल्लेख नहीं है। अतः पहलो युक्ति ठोक नहीं है।
यह सत्य है कि भावसंग्रह और सावयधम्मदोहाकी कुछ चर्चाएँ मिलती जुलती है, किन्तु प्रो० हीरालालजीके द्वारा उद्धृत १८ सदृश वाक्योंमेंसे मुश्किलसे दो तीन वाक्य आपसमें मेल खाते है । परम्परागत शैलीके आधारपर रचे गये साहित्यमें कुछ शब्दों तथा भावोंकी समानता कोई मूल्य नहीं रखती । भावसंग्रहमें कुछ अपभ्रंश पद्य पाये जाते है, और सम्पादकने लिखा है कि भावसंग्रहको प्रतियोंमें देवसेनके बादके ग्रंथकारोंके
भी पद्य पाये जाते हैं, अतः यह असंभव नहीं है कि किसी लेखककी कृपासे सावयधम्मदोहाके पद्य उसमें जा मिले हों।
तीसरे आधारसे भी कोई बात सिद्ध नहीं होती है. क्योंकि दोहाछंद कब प्रचलित हुआ यह अभीतक निर्णीत नहीं हो सका है। कालिदासके विक्रमोर्वशीयमें हम एक दोहा देखते है; रुद्रटके काव्यालङ्कारमें दो दोहे पाये जाते है, और आनंदवर्धन ( लगभग ८५० ई० ) ने भी अपने ध्वन्यालोकमें एक दोहा उद्धृत किया है । रुद्रटका समय नवीं शताब्दीका प्रारम्भ समझा जाता है। यदि यह मान भी लिया जावे कि देवसेनको दोहा रचनेकी बहुत चाह थी, तो भी उनका सावयधम्मदोहाका कर्ता होना इससे प्रमाणित नहीं होता।
लक्ष्मीचन्द्र-'प' 'भ' और 'भ ३' प्रतियाँ इसे लक्ष्मीचन्द्रकृत बतलाती हैं। श्रुतसागरने इस ग्रंथसे नौ पद्य उधत किये है, उनमेंसे एक वह लक्ष्मीचन्द्रका बतलाते हैं, और शेष लक्ष्मीधरके; अतः श्रुतसागरके उल्लेखके अनुसार लक्ष्मीचंद उपनाम लक्ष्मीषर सावयधम्मदोहाके कर्ता है। किंतु निम्नलिखित
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