Book Title: Parmatmaprakash
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 161
________________ ११६ 1 उपनिषदोंके आत्मा से योगीन्दुके आत्माकी तुलना - जैनधर्म में आत्मा और पुद्गल दोनों वास्तविक हैं, आत्माएं अनन्त हैं और मुक्तावस्था में भी प्रत्येक आत्माका स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है । किन्तु उपनिषदों में आत्माके सिवा को कि ब्रह्मका ही नामान्तर है, कुछ भी सत्य नहीं है। जैनधर्म में उपनिषदोंकी तरह आत्मा एक विश्वव्यापी तत्त्वका अंश नहीं है-किन्तु उसके अन्दर परमात्मस्वके बीज वर्तमान रहते हैं और जब वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है, तब वह परमात्मा बन जाता है। उपनिषद् तथा गीतामें बुरे और अच्छे कायको कर्म कहा है, किन्तु जैनधर्म में यह एक प्रकारका सूक्ष्म पदार्थ ( matter ) है, जो आत्माकी प्रत्येक मानसिक, वाचिक और कायिक-क्रियाके साथ आत्मासे सम्बद्ध हो जाता है और उसे जन्म-मरणके चक्रमें घुमाता है । जैनधर्मंके अनुसार आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, क्योंकि ये एक ही वस्तुकी दो अवस्थाएं हैं, और इस तरह प्रत्येक आत्मा परमात्मा है । तथा संसार अनादि है, और अगणित आत्माओं की रंगभूमि है । किन्तु वेदान्तमें आत्मा परमात्मा और विश्व एक ब्रह्मस्वरूप ही है। दो विभिन्न सिद्धान्त - आत्मा और ब्रह्म सिद्धान्तको मिलाकर उपनिषद् एक स्वतन्त्र अद्वैतवादकी सृष्टि करते हैं। वास्तवमें आत्मवाद और ब्रह्मबाद ये दोनों ही स्वतन्त्र सिद्धान्त हैं और एकसे दूसरेका विकास नहीं हो सकता । प्रथम सिद्धान्त के अनुसार अगणित आत्माएं संसार में भ्रमण कर रही हैं; जब कोई आत्मा बन्धनसे 'मुक्त हो जाता है परमात्मा बन जाता है । परमात्मा भी अगणित है, किन्तु उनके गुणोंमें कोई अन्तर नहीं है; अतः वे एक प्रकारकी एकताका प्रतिनिधित्व करते हैं। ये परमात्मा संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और लयमें कोई भाग नहीं लेते । इसके विपरीत, ब्रह्मवादके अनुसार प्रत्येक वस्तु ब्रह्मसे ही उत्पन्न होती है, और उसीमें लय हो जाती है; विभिन्न आत्माएँ एक परब्रह्मके ही अंश है। जैन और सांख्य मुख्यतया आत्मवादके सिद्धान्तको मानते हैं, जब कि वैदिक धर्म ब्रह्मवादको किन्तु उपनिषद् इन दोनों सिद्धान्तोंको मिला देते हैं, और आत्मा और ब्रह्मके ऐवयका समर्थन करते हैं । परमात्मप्रकाश J संसार और मोक्ष -- संसार और मोक्ष आत्माकी दो अवस्थाएं हैं विरुद्ध हैं। संसार जन्म और मृत्युका प्रतिनिधि है, तो मोक्ष उनका विरोधी चंगुल में फँसा रहता है, और नरक, पशु, मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमें घूमता फिरता है, किन्तु मोक्ष उससे विपरीत है, उसे पचमगति भी कहते हैं। जब आत्मा चौदह गुणस्थानोंमेंसे होकर समस्त कर्मको नष्ट कर देता है, तब उसे पञ्चमागतिकी प्राप्ति होती है। संसार दशामें कर्म आत्माकी शक्तिको प्रकट नहीं होने देते । किन्तु मुक्तावस्था में, जहाँ आत्मा परमात्मा बन जाता है, और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्यका धारक होता है, वे शक्तियां प्रकट हो जाती है । मोक्षप्राप्तिके उपाय - व्यवहारनयसे, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं, इन्हें 'रत्नत्रय' भी कहते हैं; और निश्चयनयसे रत्नत्रयात्म आत्मा ही मोक्षका कारण है, क्योंकि ये तीनों ही आत्माके स्वाभाविक गुण हैं । Jain Education International , महासमाथि - इस प्रन्यमें पारिभाषिक शब्दों की भरमारके बिना महासमाधिका बड़ा ही प्रभावक वर्णन है, जो ज्ञानार्णव, योगसार तत्वानुशासन आदिमें भी पाया जाता है। उस ध्यानको प्राप्तिके लिये जिसमें आत्मा परमात्माका साक्षात्कार करता है, मनकी स्थिरता अत्यन्त आवश्यक है । उस समय न तो इष्ट वस्तुओंके प्रति मनमें राग ही होना चाहिए और न अनिष्टके प्रति द्वेष तथा मन वचन और काय एकाप्र होने चाहिए, और बात्मा आत्मामें लीन होना चाहिए। इस सिलसिले में दो अवस्थाएं उल्लेखनीय है--एक सिद्ध और दूसरी महंत समस्त कर्मका नाश करके प्रत्येक आत्मा सिद्धपद प्राप्त कर सकता है, किन्तु मत्पद केवल तीर्थकर ही प्राप्त कर सकते है। तीर धार्मिक सिद्धान्तोंके प्रचारकमें अपना कुछ और दोनों एक दूसरे से बिल्कुल संसार दशामें आत्मा कर्मक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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