________________
१२.
परमात्मप्रकाश
३. सूत्र ४-३६५ में
आयहो दढ्ढकलेवरहो जं वाहिउ तं सारु । जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ॥ परमात्मप्रकाशमें यह दोहा (२-१४७ ) इस प्रकार है
बलि किउ माणुस-जम्मडा देक्खंतह पर सारु । जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह उज्झइ तो छारु ॥ दोनोंकी दूसरो पंक्ति बिल्कुल एक है, किन्तु सूत्रका उदाहरण देनेके लिये पहलीमें परिवर्तन किया गया है। ४. सूत्र २-८० के उदाहरणमें, हेमचन्द्र एक छोटासा वाक्य उद्धृत करते हैं---
'वोद्रहद्रहम्मि पडिया' । यह परमात्मप्रकाशके दोहा (२-११७) का अंश है, जो इस प्रकार हैते चिय घण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियतु जियलोए । वोद्दहदहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए ।
हेमचन्द्रने रकारका प्रयोग किया है, किन्तु परमात्मप्रकाशको किसी भी प्रतिमें हेमचन्द्रका पाठ नहीं मिलता । इस पद्य की भाषा अपभ्रंश नहीं है और यह गाथा भी 'उक्तं च' करके है, अतः इसके परमात्मप्रकाशका मूल पद्य होने में सन्देह है। मेरा विचार है कि स्वयं जोइन्दुने ही इसे अपने ग्रन्थमें सम्मिलित किया होगा, क्योंकि परमात्मप्रकाशकी कमसे कम पद्यसंख्यावाली प्रतियोंमें भी यह पद्य पाया जाता है।
हेमचन्द्रकी अपभ्रंश-हेमचन्द्रने अपभ्रंशकी उपभाषाओंका वैसा स्पष्ट निर्देश नहीं किया, जैसा मार्कण्डेय तथा बादके ग्रन्थकारोंने किया है। उनके नियमोंका सावधानोके साथ अध्ययन करनेसे पता चलेगा कि उनकी अपभ्रंश एक ही प्रकारकी नहीं है, किन्तु कई उपभाषाओंका मिश्रण है। हेमचन्द्रके कथन "प्रायो ग्रहणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते तस्यापि क्वचित् प्राकृतवत् शौरसेनीवच्च कार्यं भवति ।" (४-३२९ ) से यह स्पष्ट है कि वे अपनी अपभ्रंशके दो आधार मानते हैं, एक प्राकृत और दूसरा शोरसेनी । चतुर्थपादके सूत्र ३४१, ३६०, ३७२, ३९१, ३९३, ३९४, ३९८, ३९९, ४१४, ४३८ आदि तथा उनके उदाहरण अपभ्रंशके जिन तत्वोंको बतलाते हैं, वे उसीके अन्य सूत्रोंसे मेल नहीं खाते। हेमचन्द्रकी प्राकृत भाषाओंके साथ जब हम उनकी कुछ विशेषताओंका अध्ययन करते हैं, तो वे आपसमें इतनी विरुद्ध जान पड़ती हैं कि एक भाषामें उनकी उपस्थिति संभव प्रतीत नहीं होती।
परमात्मप्रकाशको अपभ्रंशके साथ हेमचन्द्र को अपभ्रंशकी तुलना-हेमचन्द्रका सुत्र "स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंशे" स्वर-परिवर्तनके लिये कोई आवश्यक नियामक नहीं है। किन्तु इसका केवल इतना ही अभिप्राय है कि हेमचन्द्रकी अपभ्रंशमें स्वर-परिवर्तन काफी स्वतंत्र है। परन्तु परमात्मप्रकाशमें हम इस प्रकारको स्वतंत्रता नहीं देखते । व्यञ्जनोंके परिवर्तनके सम्बन्धमें हेमचन्द्र कहते हैं (४-३९६ ) कि असंयक्त 'क' 'ख' 'त''थ' 'प' और 'फ' के स्थानमें क्रमश: 'ग' 'घ' 'द' 'ध' 'ब' और 'भ' होते हैं, किन्तु हेमचन्द्र के उदाहरणोंमें प्रयुक्त कुछ प्रयोग उनके इस नियमको भंग कर देते हैं। परमात्मप्रकाशमें भी इस नियमका अनुसरण नहीं किया गया है, किन्तु हेमचन्द्रने प्राकृत भाषाके लिये व्यञ्जनोंके सम्बन्धमें जो नियम निर्धारित किया है कि असंयुक्त 'क' 'ग' 'च' 'ज' 'त' 'द' 'प' 'य' और 'व' का प्रायःलोप होता है (१-१७७) परमात्मप्रकाश उससे सहमत है। अनुनासिफ अक्षरोंके सम्बन्धमें, हेमचन्द्र के व्याकरणके अनुसार शब्दके आदिमें 'न' हो तो वह कायम रहता है तथापि अपभ्रंश पद्योंके अपने नवीन संस्करणमें पिशेलने आदिम तथा मध्यम 'न' के स्थानमें 'ण' को ही रक्खा है। परमात्मप्रकाशमें भी सर्वत्र 'ण' ही आता है, केवल 'ब' प्रतिमें कहीं कहीं 'न' पाया जाता है। कन्नड़ प्रतियोंमें सर्वत्र 'ण' ही है। इसके सिवा भी दोनों ग्रन्थोंको अपभ्रंशमें कई विशेषताएँ हैं, जो अंग्रेजी प्रस्तावनासे जानी जा सकती हैं।
तलनाका निष्कर्ष-परमात्मप्रकाशकी अपभ्रंश सर्वत्र एकसी है; जब कि हेमचन्द्रकी अपभ्रंशमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org