Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05 Author(s): Sudarshanacharya Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar View full book textPage 4
________________ ओ३म् पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अनुभूमिका उदात्तादि स्वरों का महत्त्व उदात्त आदि स्वरों के महत्त्व के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द ने सौवर नामक ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है ( महाभाष्य १ ।१1१ ) दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् । । अर्थ-जो शब्द अकार आदि वर्णों के स्थान - प्रयत्नपूर्वक उच्चारण- नियम और उदात्त आदि स्वरों के नियम से विरुद्ध बोला जाता है उसको 'मिथ्याप्रयुक्त' कहते हैं, क्योंकि जिस अर्थ को जताने के लिये उसका प्रयोग किया जाता है उस अर्थ को वह शब्द नहीं कहता, किन्तु उससे विरुद्ध अर्थान्तर को कहता है । इसलिये उच्चारण किया हुआ वह शब्द अभीष्ट अभिप्राय को नष्ट करने से वज्र के तुल्य वाणीरूप होकर यजमान अर्थात् शब्दार्थ-सम्बन्ध की संगति करनेवाले पुरुष को ही दुःख देता है । अर्थात् प्रयोक्ता के अभिप्राय को बिगाड़ देना ही उसको दुःख देना है। जैसे- 'इन्द्रशत्रु' शब्द स्वर के विरुद्ध होने से विरुद्धार्थक हो जाता है । 'इन्द्रशत्रु तत्पुरुष समास में तो अन्तोदात्त होता है । इन्द्र अर्थात् सूर्य का शत्रु मेघ बढ़कर विजयी हो । 'इन्द्र॑शत्रुः' यहां बहुव्रीहि समास में पूर्वपद प्रकृतिस्वर से आद्युदात्त स्वर होता है और शत्रु शब्द का अर्थ यही है कि शान्त करनेवाला वा काटनेवाला 'इन्द्रोऽस्य शमयिता वा शातयिता वा' (निरुक्त १ ।१६ ) । सो तत्पुरुष समास में तो इन्द्र नाम सूर्य का शत्रु - शान्त करनेवाला मेघ आया । जो पुरुष - 'सूर्य का शान्त करनेवाला मेघ है' इस अभिप्राय से 'इन्द्रशत्रु' शब्द का उच्चारण किया चाहता है तो उसको अन्तोदात्त उच्चारण करना चाहिये परन्तु जो वह आद्युदात्त उच्चारण कर देवे तो उसका अभिप्राय नष्ट होजावे क्योंकि आद्युदात्त उच्चारण से बहुव्रीहि समास में मेघ का शान्त करनेवाला वा काटनेवाला 'सूर्य' ठहरेगा। इसलिए जैसे अपना इष्ट अर्थ हो वैसे स्वर और वर्ण का नियमपूर्वक उच्चारण करना चाहिये। जब मनुष्य को उदात्त आदि स्वरों का ठीक-ठीक बोध हो जाता है तब वह स्वर लगे हुये लौकिक और वैदिक शब्दों के नियत अर्थों को शीघ्र जान लेता है।Page Navigation
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