Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Author(s): Devendramuni
Publisher: University Publication Delhi

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Page 418
________________ 390 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन व्यावहारिक जीवन में ऐसी अनेक परिस्थितियाँ सामने आती हैं; जबकि नैतिक व्यक्ति को अपना कर्तव्य निर्धारण करना कठिन हो जाता है। इन समस्याओं के समाधान के लिए पश्चिमी नीतिकारों ने कर्तव्या-कर्तव्य विचार (Casuistry) नाम का एक शास्त्र ही रच दिया है जिसमें विभिन्न व्यावहारिक समस्याओं के अवसर पर कर्तव्य निर्धारण करने की प्रणाली बताई गई है। किन्तु इस शास्त्र का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह नैतिकता के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक बल देता है। दूसरी बात यह है कि व्यक्ति अवसर विशेष पर किये गये अपने क्रिया-कलापों के लिए कोई न कोई तर्क (बहाना) खोज निकालेगा और उसकी नैतिक प्रतिबद्धता में शिथिलता आ जायेगी। इन्हीं सब बातों पर विचार करके ग्रीन ने कहा है-कर्तव्यों में संघर्ष जैसी कोई बात होती ही नहीं। प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति का एक ही कर्तव्य होता है, यद्यपि यह संभव है कि परिस्थितियाँ इतनी जटिल हों कि वास्तविक कर्तव्य का निश्चय करना कठिन हो जाये। ग्रीन के इस कथन से ध्वनित होता है कि कर्तव्यों में विरोध हो ही नहीं सकता। जो कुछ भी विरोध दिखाई देता है, उसका कारण व्यक्ति की स्वार्थभरी समझ एवं वासना, आवेग-संवेग आदि हैं। यदि नैतिक अन्तरदृष्टि (Moral intuition) से विचार किया जाये, तो व्यक्ति को प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य स्पष्ट प्रतिभासित होगा। कर्तव्य-निर्धारण के लिए जैन नीति ने स्यावाद का सिद्धान्त दिया है। इसमें मुख्य और गौण की कल्पना है। जिस स्थिति में जो कर्तव्य प्रमुख हो उसी का पालन करना चाहिए। जैसे बच्चे को गलती पर समझाना-बुझाना और ताड़ना देना पिता का प्रमुख कर्तव्य है, उस समय पर लाड़-प्यार नहीं करना चाहिए। इसी को मैथिलीशरण गुप्त ने इन शब्दों में कहा है"न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।" अतः कर्तव्याकर्तव्य के निर्धारण के अवसर पर आत्म-स्वातंत्र्य के सर्वोच्च नैतिक नियम का आश्रय लेकर ऋतंभरा प्रज्ञा द्वारा निर्णय करना चाहिए। 1. There is no such thing really as a conflict of duties. A man's duty under any particular set of circumstances is always one, though the conditions of the case may be so complicated and obscure as to make it difficult to decide what the duty really is. -Green T.H. : Prolegemena to Ethics, p. 355

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