Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Author(s): Devendramuni
Publisher: University Publication Delhi

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Page 481
________________ मनोविजय परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 453 सुकम्मि चित्ते, गूणं अप्पा पयासेइ । -आराधनासार, 74 मन को (विषय- कषाय, आवेग संवेगों, इच्छा-अभिलाषाओं से ) खाली कर देने पर उसमें आत्मा का आलोक झलकने लगता है । मानव स्वभाव लुद्धा नरा अत्थपरा हवंति, मूढा नरा कामपरा हवंति । बुद्धा नरा खन्तिपरा हवंति, मिस्सा नरा तिनिवि आयरंति ।। - गौतम कुलक, 1 लोभी मनुष्य धन एकत्र करने में लगे रहते हैं, मूर्ख मनुष्य कामभोगों में डूबे रहते हैं, बुद्धिमान पुरुष क्षमा प्रदान करने वाले होते हैं और चौथे प्रकार के मनुष्य इन तीनों का ही ( धन-संग्रह, काम - भोग और क्षमा) विवेकपूर्ण आचरण करते हैं। माया मायी विउव्वइ नो अमायी विउव्वइ - भगवती सूत्र, 13/9 कपटी व्यक्ति अनेक रूपों का प्रदर्शन करता है; जिसके हृदय में कपट नहीं होता वह नहीं करता । सरल सदा समरूप रहता है । सच्चा सहस्सा वि माया एक्कावि णासोदि । - भगवती आराधना, 1/3/8/4 माया का एक आचरण ही हजारों सत्यों का नाश कर डालता है । मित्र तं मित्तं कायव्यं जं किर वसणम्मि देसकालम्मि | आलिहियभित्तिवाउल्लयं व न परं मुहं ठाइ ।। - वज्जालग्ग, 6/4 मित्र उसे बनाना चाहिए जो भित्तिचित्र के समान किसी संकट और देश-काल में कभी भी विमुख न हो ।

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