Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Author(s): Devendramuni
Publisher: University Publication Delhi

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Page 489
________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 461 चतुर्भगी-दोष दर्शन अप्पणो णाममेगे वज्ज पासइ, णो परस्स। परस्स णाममेगे वज्जं पासइ, णो अप्पणो। एगे अप्पणो वि वज्जं पासइ, परस्स वि। एगे णो अप्पणो वज्जं पासइ, णो परस्स। -स्थानांग, 4/1 (1) कुछ मनुष्य अपना वर्ण्य (दोष) देखते हैं, दूसरों का नहीं। (2) कुछ मनुष्य दूसरों का वर्ण्य (दोष) देखते हैं, अपना नहीं। (3) कुछ मनुष्य अपना भी दोष देखते हैं और दूसरों का भी। (4) कुछ मनुष्य न अपना दोष देखते हैं, न दूसरों का ही। चतुर्भगी-पुत्र चत्तारि सुत्ता- अतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगाले। -स्थानांग, 4/1 चार प्रकार के पुत्र होते हैं(1) कुछ गुणों की दृष्टि से अपने पिता से बढ़कर होते हैं। (2) कुछ अपने पिता के समान होते हैं। (3) कुछ अपने पिता से हीन होते हैं। (4) कुछ वंश का नाश करने वाले कुलांगार होते हैं चतुर्भगी (मानव) आवायभद्दए णाम एगे णो संवासभद्दए। संवासभद्दए णामं एगे णो आवायभद्दए। एगे आवायभद्दए वि, संवासभद्दए वि। एगे णो आवासभद्दए, णो संवासभद्दए। -स्थानांग, 4/1 ___(1) कुछ पुरुष प्रथम मिलन में अच्छे होते हैं, किन्तु सहवास-साथ रहने में अच्छे नहीं होते। (2) कुछ पुरुषों का सहवास अच्छा होता है, भेंट (प्रथम मिलन) नहीं।

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