Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Author(s): Devendramuni
Publisher: University Publication Delhi

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Page 484
________________ 456 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन शील पालिज्ज सीलं पुण सव्व कालं। -उपदेशसप्ततिका, 2 शील का सदैव पालन करना चाहिए। नियमित्तं नियभाया, नियजणओ निय पियामहो वावि। नियपुत्तो वि कुसीलो, न वल्लहो होइ लोआणं ।। -शीलकुलक, 17 चाहे अपना मित्र हो, भाई हो, पितामह हो अथवा अपना पुत्र ही हो, यदि वह कुशील (कुत्सित शील वाला) है तो उसको कोई नहीं चाहता, वह किसी का प्रिय नहीं हो सकता। सीलं उत्तमवित्तं, सीलं जीवाण मंगलं परम । सीलं दोहग्गहरं, सीलं सुक्खाण कुलभवणं। -शीलकुलक, 2 शील ही उत्तम धन है, शील ही समस्त दुख-दारिद्रय को नाश करता है और शील ही समस्त सुखों का धाम है। श्रमण-धर्म खंतो अ मद्दवऽज्जव विमुत्तया तह अदीणय तितिक्खा। आवस्सगपरिसुद्धी अ होति भिक्खुस्स लिंगाई।। ___-दशवैकालिक नियुक्ति 349 क्षमा, मृदुता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक क्रियाओं की परिशुद्धि-ये भिक्षु (साधु-श्रमण) के चिन्ह हैं। सज्जन दीणं अब्भुद्धरिउं पत्ते सरणागए काउं। अवरद्धेसु वि खमिउं सुयणो च्चिय नवरि जाणेइ।। -वज्जालग्ग, 4/13 दीनों का उद्धार करना, शरण में आये हुओं का प्रिय (कल्याण) करना; अपराधियों को भी क्षमा कर देना-सज्जन ही जानता है।

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