Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Author(s): Devendramuni
Publisher: University Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 470
________________ 442 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन पर पड़ने दी है, उसका फल भोगे बिना या अनुभव किये बिना उनका छुटकारा नहीं है। जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म तमेव आगच्छति संपराए। -सूत्रकृतांग, 1/5/2/23 भूतकाल में जैसा जो कुछ भी कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में सामने आता है। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माइं। कत्थई धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ।। -बृहत्कल्पभाष्य, 2690 कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। जैसे कहीं ऋण देते समय धनी बलवान होता है तो कहीं ऋण को चुकाते समय कर्जदार बलवान होता है। कर्मण्यता नियवसणे होह वज्जघडिय। -कुवलयमाला, अनुच्छेद 85 अपने कार्य में वज्र के समान दृढ़ रहो। कषाय तं नियमा मुत्तव्वं जत्तो उपज्जए कसायग्गी। तं वत्थु धारिज्जा, जेणोवसमो कसायाणं ।। -गुणानुराग कुलक, 11 जिससे कषाय (क्रोध, मान, कपट, लोभ आदि) रूप अग्नि प्रज्वलित (प्रदीप्त) होती हैं, उन (वृत्ति प्रवृत्ति क्रियाओं) को तुरन्त छोड़ देना चाहिए और जिससे कषायों का उपशमन होता है, उन्हें धारण करना चाहिए। सव्वत्थ वि पियवयणं, दुब्बयणे वि खमकरणं। सव्वेसिं गुणगहणं, मंदकसायाण दिळंता।। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 91 सभी से प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन बोलने वाले को भी क्षमा करना और सभी के गुणों को ग्रहण करना-यह लक्षण मंदकषायी व्यक्तियों में दिखाई देते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526