Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Author(s): Devendramuni
Publisher: University Publication Delhi

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Page 471
________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 443 अप्प-पसंसण-करणं, पुज्जेसु वि दोस गहण सीलत्तं । वेर-धरणं च सुदूरं, तिव्व कसायाण लिंगम् ।। - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 92 तीव्र कषायी प्राणियों के तीन लक्षण हैं 1. अपनी प्रशंसा करना, 2. पूज्य - पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, और 3 दीर्घकाल तक वैर रखना । कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्ढणं । मे चत्तारि दोसे उ, इच्छन्तो हियमप्पणो ।। - दशवैकालिक, 8/36 आत्मा के हित (भलाई) की इच्छा करने वाले व्यक्ति को क्रोध, मान, माया ( कपट) और लोभ - इन चारों का त्याग कर देना चाहिए; क्योंकि यह चारों पाप को बढ़ाने वाले हैं। कोहो पीइं पणासेई, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्व विणासणो । - दशवैकालिक, 8/36 क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय को विनष्ट करने वाला है, माया (पट) से मित्रता समाप्त हो जाती है और लोभ के कारण यह सभी नष्ट हो जाते हैं । उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे । मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। - दशवैकालिक, 8/38 उपशम (प्रशांत भाव) से क्रोध पर, मृदुता से मान पर, ऋजुता ( सरलता) से माया ( कपट) पर और संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करे । अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च । हु वीससियव्वं, थोवं पि हु ते बहुं होई ।। भे - आवश्यकनियुक्ति, 120 ऋण (कर्ज), व्रण (घाव), अग्नि और कषाय - यह थोड़े भी हों तो इनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । यह थोड़े भी समय पाकर बहुत बड़े ( अधिक) हो जाते हैं।

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