Book Title: Nitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Author(s): Devendramuni
Publisher: University Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 465
________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 437 आत्मा का शुभ परिणाम (विचार) पुण्य और अशुभ परिणाम (विचार) पाप है। अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुपट्ठिय सुपट्ठिओ। -उत्तराध्ययन, 20/37 आत्मा ही सुख और दुख का कर्ता और भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में लीन आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है। पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म। जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। -उत्तराध्ययन, 32/46 रागद्वेष से कलुषित होकर आत्मा कर्मों का संचय करता है जो उसके लिए दुःख रूप फल देने वाले होते हैं। न लिप्पई भव मज्झे वि संतो। जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।। -उत्तराध्ययन 32/47 जो आत्मा विषयों के प्रति अनासक्त है, वह संसार में रहकर भी उसी प्रकार निर्लिप्त रहता है, जैसे पुष्करिणी में रहता हुआ भी पलाशकमल। किं भया पाणा? दुक्खभया पाणा। दुक्खे केण कडे? जीवेण कडे पमाएणं ।। -स्थानांग, 3/2 प्राणी किससे भयभीत रहते हैं? दुःख से। दुःख किसने किया? स्वयं आत्मा ने ही अपनी भूल से। एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं। -सूत्रकृतांग, 1/2/5/22 स्वकृत दुःखों का आत्मा अकेला ही भोगता है। अप्पा खलु सययं रक्खियम्बो, सव्विदिएहिं सुसमाहिएहिं। अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ।। -दशवैकालिक चूलिका 2/16 सभी इन्द्रियों को सुसमाहित (अपने वश में) करके आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। अरक्षित आत्मा जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण करता है और सुरक्षित आत्मा सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526