Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher: 25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab

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Page 421
________________ वर्ग-पंचम] (३४३) [निरयावलिका ही देवलोक के समान मन को प्रसन्न करने वाली देखने के योग्य सुन्दर छटा वाली अद्वितीय शिल्प-कला से सुशोभित थी। उस द्वारिका नगरी के बाहर उत्तर पूर्व के कोण-ईशान-कोण में एक रैवतक नाम का पर्वत था जो कि बहुत ऊंचा था और जिसके शिखर गगन-चुम्बी थे, वह नानाविध वृक्षों गुच्छों गुल्मों और लताओं एवं बेलों से घिर कर बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा था। तथा वह मृग; मयूर, क्रौञ्च (कुरर), सारस; चक्रवाक (चकवा), मदनशाला (मैना) और कोयल आदि पक्षियों के समूहों से सुशोभित था और उस पर्वत पर अनेक नदी - नालों के सुन्दर तट कटक (वृक्षाच्छादित गोल भाग) झरने, जल-प्रपात, गुफायें और कुछ झुके हुए पर्वत-शिखर आदि बहुत बड़ी संख्या में थे। उसी पर्वत पर अप्सरायें देव-समूह चारण जंघाचरण आदि विशिष्ट साधु और विद्याधरों के युगल आकर क्रीड़ायें किया करते थे और वहां नित्य नानाविध महोत्सव होते रहते थे। दशाह कुल के श्रेष्ठ वीरों एव बलवानों का वह पर्वत भगवान नेमिनाथ जी की तप-स्थली होने के कारण सबके लिये शुभकारी एवं शान्त स्थान था। वह नेत्रों के लिये आल्हादकारी, सुन्दर आकार-प्रकार वाला, प्रसन्नता पूर्ण और दर्शकों के मन को आकृष्ट करने वाला था। . उस रैवतक पर्वत के बहुत निकट हो एक नन्दन वन नामक उद्यान था, (जिस में) सभी ऋतुओं के पुष्प होने से वह अत्यन्त दर्शनीय प्रतीत होता था, उस नन्दन वन नामक उद्यान में एक सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था, जो कि बहुत प्राचीन था, वहां आकर अनेक लोग उसकी पूजा-अर्चना किया करते थे। सुरप्रिय यक्षायतन एक बहुत बड़े वन-खण्ड द्वार चारों ओर से घिरा हुआ था, जैसे शिला-पट्ट से युक्त पूर्णभद्र उद्यान घिरा हुआ था ॥२॥ टीका-कुछ विशिष्ट नामों के प्रसिद्ध नाम कोष्ठकों में दे दिये गए हैं ॥२॥ मूल--तत्य णं बारवईए नयरोए कण्हे नामं वासुदेवे राया होत्था जाव पसासेमाणे विहरइ। से गं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं

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