Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher: 25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab

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Page 441
________________ वर्ग - पंचम ] मैं भी भगवान श्री अरिष्टनेमी जी को नमस्कार कर उनकी सेवा करूं, तरणं अरहा अरिट्ठमी- तदनन्तर अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी, निसदस्स कुमारस्स अयमेयारूवं अज्झत्थियं जाव वियाणित्ता - उस निषध कुमार के अन्तःकरण में उठे आध्यात्मिक भाव को जा कर, अट्ठारसह समणसहस्सेहि- अठारह हजार श्रमणों के साथ, जाव नंदनवणे उज्जाणे समोसढेउस नन्दन वन उद्यान में पधारे, परिसा निग्गया - श्रद्धालु श्रावक उनके दर्शनों एवं प्रवचनों को सुनने के लिये अपने-अपने घरों से निकल पड़े । ( ३६३ ) ( निरयावल का तणं निसढे कुमारे इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे - निषध कुमार भगवान के आगमन की सूचना प्राप्त करते ही, हट्ठ० - अत्यन्त प्रसन्न हो गए, चाउरघण्टेणं आस रहेणं निग्गए - (और) बे भी) चार घण्टों वाले अश्व रथ पर चढ़कर भगवान सान्निध्य में पहुंचने के लिये महल से निकल पड़े, जहा जमाली-ठीक वैसे ही जैसे जमाली घर से निकले जाव अम्मापियरो पुच्छिता - और वे भी माता-पिता से पूछ कर ( उनकी आज्ञा लेकर ), गए, अणगारे जाए जाव गुत्तबभयारो - और वे गुप्त ब्रह्मचारी बन गए । थे, पव्व इए - प्रव्रजित हो तणं - तदनन्तर से निसढे अणगारे - वे अणगार निषेध कुमार, अरहतो अरिट्ठनेपिस्य तहारूवाणं थेराणं अतिए - अर्हत श्री अरिष्टने मी जी के तथा रूप स्थविरों के पास, सामाइयमाइया एक्कारस अंगाई अहिज्जइ - ( रहते हुए उनसे ) सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, (और), अहिज्जित्ता - अध्ययन करके, बहूई चउत्थछट्ठ जाव विचित्रोहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे- बहुत प्रकार के चतुर्थ भक्त षष्ठ भक्त आदि विचित्र (अद्वितीय) तप रूप कर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए, बहपडिपुण्णाइं नव वासाई - परिपूर्ण नौ वर्षों तक, सामण्णपरियागं पाउणइ - श्रामण्य ( साधुत्व ) पर्याय का पालन करते हैं, (श्रौर अब वे ), बायालीस भत्ताइं अणसणाए छेदेइ - बयालीस भक्तों (भोजनों) का उपवास तपस्या द्वारा छेदन कर देते हैं, आलोइयपडिक्कते - पापस्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करते हैं, (और) समाहिपत्ते - समाधि पूर्वक, आणुपुच्चीए कालगए - क्रमशः मृत्यु को प्राप्त हुए ||११| मूलार्थ तदनन्तर किसी समय अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी एक बार द्वारका नगरी से बाहर अनेक प्रदेशों में विचरण करने लगे उस समय निषध कुमार श्रमणोपासक बन कर जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जान कर विचरते रहते थे। तदनन्तर श्रमणोपासक निषध कुमार एक समय जहां पर पौषधशाला थी, वहीं पर आते हैं और वहां आकर कुश के आसन पर बैठकर ( धर्म - ध्यान करते हुए) समय व्यतीत करने लगे । तदनन्तर निषेध कुमार के मन में रात्रि के अन्तिम प्रहर में धर्म- जागरण करके जागते हुए इस प्रकार का धार्मिक संकल्प उत्पन्न हुआ, कि वे ग्रामों, आकरों एवं संनिवेशों

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