Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher: 25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab

View full book text
Previous | Next

Page 442
________________ निरयावलिका । (३६४ ) | वर्ग- पंचम के निवासी धन्य हैं जहां पर अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी विचरण करते हैं धन्य है वे राजा ईश्वर एवं सार्थवाह आदि, जो भगवान श्री अरिष्टनेमी जी को वन्दनानमस्कार करते हैं और उनको सेवा-भक्ति करते हैं । यदि अरिहंत प्रभु अष्टमी जी ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए द्वारका नगरी के नन्दन वन में आकर विहरण करें, तब मैं भी भगवान श्री अरिष्टनेमी जी को नमस्कार कर उनकी सेवा करूं । तदनन्तर अरिहंत प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी उस निषध कुमार के अन्तःकरण में उठे आध्यात्मिक भाव को जान कर अठारह हजार श्रमणों के साथ उस नन्दन वन उद्यान में पधारे, श्रद्धालु श्रावक उनके दर्शनों एवं प्रवचनों को सुनने के लिये अपने-अपने .. घरों से निकल पड़े | निषेध कुमार भगवान के आगमन की सूचना प्राप्त करते ही प्रसन्न हो गए, ( और वे भी ) चार घण्टों वाले अश्व रथं पर चढ़ कर भगवान के सान्निध्य पहुंचने के लिये महल से निकल पड़े, ठीक वैसे हो जैसे जमाली घर से निकले थे, और वे भी माता-पिता से पूछ कर (उनकी आज्ञा लेकर ) प्रव्रजित हो गए और वे गुप्त ब्रह्मचारो बन गए । तदनन्तर वे अणगार निषध कुमार अहंत श्री अरिष्टनेमी जी के तथारूप स्थविरों के पास (रहते हुए उनसे ) सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करते हैं (और) अध्ययन करके बहुत प्रकार के चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त आदि विचित्र (अद्वितीय) तप-रूप कर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नौ वर्षों तक श्रामण्य-[साधुत्व] पर्याय का पालन करते हैं [ और अब वे ] बयालीस भक्तों [भोजनों] का उपवास तपस्या द्वारा छेदन कर देते हैं, पाप स्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करते हैं, और वे समाधि-पूर्वक क्रमशः मृत्यु को प्राप्त हुए ॥। ११॥ मूल--तएण से वरदत्ते अणगारे निसढं अणगारं कालगतं जाणित्ता जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव एवं arrer एवं खलु देवाप्पियाणं अंतेवासी निसढे नामं अणगारे पंगइ

Loading...

Page Navigation
1 ... 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472